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• अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
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वैश्य तथा शूद्र-सभी वैष्णव थे। इनके सिवा, जो विष्णु और शिव-तीन रूपोंमें अभिव्यक्ति हुई है। अन्त्यज थे, उनके मनमें भी भगवान् विष्णुके प्रति भक्ति तथापि मेरी विष्णुलोकमें जानेको इच्छा है, अतः आपके थी। सभी दिव्य माला धारण किये तुलसीदलोंसे शोभा चरणोंमें प्रणाम करता है। भगवान् शिव बोलेपा रहे थे। उनकी संख्या अरबों-खरबोतक पहुँच गयी। 'महाराज ! एवमस्तु, तुम विष्णुलोकको जाओ।' उनकी सभी भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर और जप एवं दानमें आशा पाकर राजाने कल्याणमयी भगवती उमाको संलग्न रहनेवाले थे। सब-के-सब विष्णु-भक्त और नमस्कार किया और उन परमपावन विष्णुभक्तोंके साथ पुण्यात्मा थे। उन सबने महाराजके साथ दिव्य लोकोंकी वे विष्णुधामको चल दिये। ऋषि और देवता सब ओर यात्रा की। उस समय सबके हृदयमें महान् आनन्द छा खड़े हो उनकी स्तुति कर रहे थे। गन्धर्व, किनर, सिद्ध, रहा था। राजा ययाति सबसे पहले इन्द्रलोकमें गये, पुण्यात्मा, चारण, साध्य, विद्याधर, उनचास मरुद्गण, उनके तेज, पुण्य, धर्म और तपोबलसे और लोग भी आठों वसु, ग्यारहों रुद्र, बारहों आदित्य, लोकपाल तथा साथ-साथ गये। वहाँ पहुँचनेपर देवता, गन्धर्व, किन्नर समस्त त्रिलोकी चारों ओर उनका गुणगान कर रही थी। तथा चारणोंसहित देवराज इन्द्र उनके सामने आये और महाराज ययातिने रोग-शोकसे रहित अनुपम विष्णुउनका सम्मान करते हुए बोले-'महाभाग ! आपका लोकका दर्शन किया। सब प्रकारकी शोभासे सम्पन्न स्वागत है ! आइये, मेरे घरमें पधारिये और दिव्य, पावन सोनेके विमान उस लोककी सुषमा बढ़ा रहे थे। चारों एवं मनोरम भोगोंका उपभोग कीजिये।
ओर दिव्य छटा छा रही थी। वह मोक्षका उत्तम धाम - राजाने कहा-देवराज ! आपके चरणारविन्दोंमें वैष्णवोंसे शोभा पा रहा था। देवताओंकी वहाँ भीड़-सी प्रणाम करके हमलोग सनातन ब्रह्मलोकमें जा रहे हैं। लगी थी। - यह कहकर देवताओके मुखसे अपनी स्तुति सुनते नहुषनन्दन ययातिने सब प्रकारके दाहसे रहित उस हुए वे ब्रह्मलोकमे गये। वहाँ मुनिवरोंके साथ दिव्य धाममें प्रवेश करके केशहारी भगवान् नारायणका महातेजस्वी ब्रह्माजीने अर्ध्यादि सुविस्तृत उपचारोंके द्वारा दर्शन किया। भगवान्के ऊपर चैदोवे तने हुए थे, जिनसे उनका आतिथ्य-सत्कार किया और कहा-'राजन् ! उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। वे सब प्रकारके आभूषण तुम अपने शुभ कर्मोके फलस्वरूप विष्णुलोकको और पीत वस्त्रोंसे विभूषित थे। उनके वक्षःस्थलमें जाओ।' ब्रह्माजीके यों कहनेपर वे पहले शिवलोकमें श्रीवत्सका चिह्न शोभा पा रहा था। सबके महान् आश्रय गये, वहाँ भगवान् शङ्करने पार्वतीजीके साथ उनका भगवान जगन्नाथ लक्ष्मीके साथ गरुड़पर विराजमान थे। स्वागत-सत्कार किया और इस प्रकार कहा- वे ही परात्पर परमेश्वर हैं। सम्पूर्ण देवलोकोंकी गति हैं। 'महाराज ! तुम भगवान् विष्णुके भक्त हो, अतः मेरे भी परमानन्दमय कैवल्यसे सुशोभित है। बड़े-बड़े लोक, अत्यन्त प्रिय हो, क्योंकि मुझमें और विष्णुमें कोई अन्तर पुण्यात्मा वैष्णव, देवता तथा गन्धर्व उनकी सेवामें रहते नहीं है। जो विष्णु हैं, वही मैं हूँ तथा मुझीको विष्णु हैं। राजा ययातिने अपनी पत्नीसहित निकट जाकर समझो. पुण्यात्मा विष्णुभक्तके लिये भी यही स्थान है। गन्धर्वोद्वारा सेवित, देववृन्दसे घिरे, दुःख-क्लेशहारी प्रभु अतः महाराज ! तुम यहाँ इच्छानुसार रह सकते हो।' नारायणको नमस्कार किया तथा उनके साथ जो अन्य - भगवान् शिवके यों कहनेपर श्रीविष्णुके प्रिय भक्त वैष्णव पधारे थे, उन्होंने भी भक्तिपूर्वक भगवान्के दोनों ययातिने मस्तक झुकाकर उनके चरणोंमें भक्तिपूर्वक चरण-कमलोंमें मस्तक झुकाया। परम तेजस्वी राजाको प्रणाम किया और कहा-'महादेव ! आपने इस समय प्रणाम करते देख भगवान् हषीकेशने कहा-'महाराज ! जो कुछ भी कहा है, सत्य है, आप दोनोंमें वस्तुतः कोई मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हूँ। तुम मेरे भक्त हो; अतः तुम्हारे अन्तर नहीं है। एक ही परमात्माके स्वरूपकी ब्रह्मा, मनमें यदि कोई दुर्लभ मनोरथ हो तो उसके लिये वर