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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ..
[संक्षिप्त पयपुराण
तुम्हें औरोंकी अपेक्षा आठगुना फल होगा। और महातपस्वी जाबालि-इन सभी तपस्वी ऋषियोंकी
सूतजी कहते हैं-समस्त तीथेकि वर्णनसे तुम प्रतीक्षा करो तथा इन सबको साथ लेकर उपर्युक्त सम्बन्ध रखनेवाले देवर्षि नारदके इस चरित्रका जो सबेरे तीर्थोकी यात्रा करो।' राजा युधिष्ठिरसे यों कहकर देवर्षि उठकर पाठ करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। नारद उनसे विदा ले वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् नारदजीने यह भी कहा–'राजन् ! वाल्मीकि, कश्यप, उत्तम व्रतका पालन करनेवाले धर्मात्मा युधिष्ठिरने बड़े आत्रेय, कौण्डिन्य, विश्वामित्र, गौतम असित, देवल, आदरके साथ समस्त तीर्थोकी यात्रा की । ऋषियो ! मेरी मार्कण्डेय, गालव, भरद्वाज-शिष्य उद्दालक मुनि, कही हुई इस तीर्थयात्राकी कथाका जो पाठ या श्रवण शौनक, पुत्रसहित महान् तपस्वी व्यास, मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा करता है, वह सब पातकोंसे मुक्त हो जाता है।
मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
सूतजी कहते हैं-महर्षियो ! पापराशिका पूर्वकालमें महाभारत-युद्ध समाप्त हो जानेपर जब निवारण करनेके लिये तीर्थोकी महिमाका श्रवण श्रेष्ठ है कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको अपना राज्य प्राप्त हो गया, उस तथा तीर्थोंका सेवन भी प्रशस्त है। जो मनुष्य प्रतिदिन समय मार्कण्डेयजीने पाण्डुकुमारसे प्रयागकी महिमाका यह कहता है कि मैं तीथोंमें निवास करूँ और तीर्थोंमें जो वर्णन किया था, वही प्रसङ्ग मैं आपलोगोको सुनाता स्नान करूँ, वह परमपदको प्राप्त होता है। तीर्थोकी चर्चा हूँ। राज्य प्राप्त हो जानेपर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको बारंबार करनेमात्रसे उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं; अतः तीर्थ चिन्ता होने लगी। उन्होंने सोचा-'राजा दुर्योधन ग्यारह धन्य हैं। तीर्थसेवी पुरुषोंके द्वारा जगत्कर्ता भगवान् अक्षौहिणी सेनाका स्वामी था। उसने हमलोगोको नारायणका सेवन होता है। ब्राह्मण, तुलसी, पीपल, अनेकों बार कष्ट पहुँचाया। किन्तु अब वे सब-के-सब तीर्थसमुदाय तथा परमेश्वर श्रीविष्णु-ये सदा ही मौतके मुँहमें चले गये। भगवान् वासुदेवका आश्रय मनुष्योंके लिये सेव्य है।* पीपल, तुलसी, गौ तथा लेनेके कारण हम पाँच पाण्डव शेष रह गये हैं। सूर्यकी परिक्रमा करनेसे मनुष्य सब तीर्थोका फल पाकर द्रोणाचार्य, भीष्प, महाबली कर्ण, भ्राता और पुत्रोंसहित विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसलिये विद्वान् पुरुष राजा दुर्योधन तथा अन्यान्य जितने वीर राजा मारे गये हैं निश्चय ही पुण्य-तीर्थोंका सेवन करे।
उन सबके बिना यह राज्य, भोग अथवा जीवन लेकर ऋषि बोले-सूतजी ! हमने माहात्म्यसहित क्या करना है। हाय ! धिक्कार है, इस सुखको; मेरे लिये समस्त तीर्थोका श्रवण किया; किन्तु आपने प्रयागकी यह प्रसङ्ग बड़ा कष्टदायक है।' यह विचारकर राजा महिमाको पहले थोड़ेमें बताया है, उसे हमलोंग व्याकुल हो उठे। वे उत्साहहीन होकर नीचे मुँह किये विस्तारके साथ सुनना चाहते हैं। अतः आप कृपापूर्वक बैठे रहते थे। उन्हें बारंबार इस बातकी चिन्ता होने लगी उसका वर्णन कीजिये।
कि 'अब मैं किस योग, नियम एवं तीर्थका सेवन करूँ, सूतजी बोले-महर्षियो ! बड़े हर्षकी बात है। जिससे महापातकोंकी राशिसे मुझे शीघ्र ही छुटकारा मैं अवश्य ही प्रयागकी महिमाका वर्णन करूँगा। मिले। कौन-सा ऐसा तीर्थ है, जहाँ स्रान करके मनुष्य
* ब्राह्मणस्तुलसी चैव अश्वत्थस्तीर्थसंचयः । विष्णुच परमेशानः सेव्य एव नृभिः सदा ।। (४०।६) + अश्वत्थस्य तुलस्याश्च गवा सूर्यात् प्रदक्षिणात् । सर्वतीर्थफल प्राप्य विष्णुलोके महीयते ।। (४०।९)