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स्वर्गखण्ड ] • ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसङ्गके पाठका माहाय्य
कारण सब तीर्थोंसे बढ़कर है। प्रयागतीर्थके नामको सुनने, कीर्तन करने तथा उसे मस्तक झुकानेसे भी मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो उत्तम व्रतका पालन करते हुए वहाँ संगममें स्नान करता है, उसे महान् पुण्यकी प्राप्ति होती है; क्योंकि प्रयाग देवताओंकी भी यज्ञभूमि है। वहाँ थोड़ेसे दानका भी महान् फल होता है । कुरुनन्दन ! प्रयागमें साठ करोड़ और दस हजार तीर्थोका निवास बताया गया है। चारों विद्याओंके अध्ययनसे जो पुण्य होता है तथा सत्यवादी पुरुषोंको जिस पुण्यकी प्राप्ति होती है, वह वहाँ गङ्गायमुना-संगममें स्नान करनेसे ही मिल जाता है। प्रयागमें भोगवती नामक उत्तम बावली है जो वासुकि नागका उत्तम स्थान माना गया है। जो वहाँ स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। वहाँ हंसप्रपतन तथा दशाश्वमेध नामक तीर्थ हैं। गङ्गामें कहीं भी स्नान करनेपर कुरुक्षेत्र में स्नान करनेके समान पुण्य होता है।
गङ्गाजीका जल सारे पापोंको उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे आग रूईके ढेरको जला डालती है। सत्ययुगमें सभी तीर्थ, त्रेतामें पुष्कर, द्वापरमें कुरुक्षेत्र तथा कलियुगमें गङ्गा ही सबसे पवित्र तीर्थ मानी गयी हैं। पुष्करमें तपस्या करे, महालयमें दान दे और भृगुतुङ्गपर उपवास करे तो विशेष पुण्य होता है। किन्तु पुष्कर, कुरुक्षेत्र और गङ्गाके जलमें स्नान करनेमात्रसे प्राणी अपनी सात पहलेकी तथा सात पीछेकी पीढ़ियोंको भी तत्काल ही तार देता है। गङ्गाजी नाम लेनेमात्रसे पापोंको धो देती हैं, दर्शन करनेपर कल्याण प्रदान करती हैं तथा स्नान करने और जल पीनेपर सात पीढ़ियोंतकको पवित्र कर देती हैं। राजन्! जबतक मनुष्यकी हड्डीका गङ्गाजलसे स्पर्श बना रहता है, तबतक वह पुरुष स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित रहता है। ब्रह्माजीका कथन है कि
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गङ्गाके समान तीर्थ, श्रीविष्णुसे बढ़कर देवता तथा ब्राह्मणोंसे बढ़कर पूज्य कोई नहीं है। महाराज! जहाँ गङ्गा बहती हैं, वहाँ उनके किनारेपर जो-जो देश और तपोवन होते हैं, उन्हें सिद्ध क्षेत्र समझना चाहिये। *
जो मनुष्य प्रतिदिन तीर्थोके इस पुण्य प्रसङ्गका श्रवण करता है, वह सदा पवित्र होकर स्वर्गलोकमें आनन्दका अनुभव करता है तथा उसे अनेकों जन्मोंकी बातें याद आ जाती हैं। जहाँकी यात्रा की जा सकती है। और जहाँ जाना असम्भव है, उन सभी प्रकारके तीर्थोका मैंने वर्णन किया है। यदि प्रत्यक्ष सम्भव न हो तो मानसिक इच्छाके द्वारा भी इन सभी तीर्थोकी यात्रा करनी चाहिये। पुण्यकी इच्छा रखनेवाले देवोपम ऋषियोंने भी इन तीर्थोका आश्रय लिया है।
वसिष्ठ मुनि बोले- राजा दिलीप ! तुम भी उपर्युक्त विधिके अनुसार मनको वशमें करके तीर्थोंकी यात्रा करो; क्योंकि पुण्य पुण्यसे ही बढ़ता है। पहलेके बने हुए कारणोंसे, आस्तिकतासे और श्रुतियोंको देखनेसे शिष्ट पुरुषोंके मार्गपर चलनेवाले सज्जनों को उन तीर्थोंकी प्राप्ति होती है।
नारदजी कहते हैं— राजा युधिष्ठिर! इस प्रकार दिलीपको तीर्थोकी महिमा बताकर मुनि वसिष्ठ उनसे विदा ले प्रातःकाल प्रसन्न हृदयसे वहीं अन्तर्धान हो गये। राजा दिलीपने शास्त्रोंके तात्त्विक अर्थका ज्ञान हो जाने और वसिष्ठजीके कहनेसे सारी पृथ्वीपर तीर्थयात्राके लिये भ्रमण किया। महाभाग ! इस प्रकार सब पापोंसे छुड़ानेवाली यह परमपुण्यमयी तीर्थयात्रा प्रतिष्ठानपुर (झूसी) में आकर प्रतिष्ठित - समाप्त होती है। जो मनुष्य इस विधिसे पृथ्वीकी परिक्रमा करेगा, वह मृत्युके पश्चात् सौ अश्वमेध यज्ञोंका फल प्राप्त करेगा, युधिष्ठिर! तुम ऋषियोंको भी साथ ले जाओगे, इसलिये
* पुनाति कीर्तिता पापं दृष्ट्वा भद्रं प्रयच्छति। अवगाढा च पीता च पुनात्यासप्तमं कुलम् ॥ यावदस्थि मनुष्यस्य गङ्गायाः स्पृशते जलम् । तावत्स पुरुषो राजन् स्वर्गलोके महीयते ॥ न गङ्गासदृशं तीर्थं न देवः केशवात्परः । ब्राह्मणेभ्यः परं नास्ति एवमाह पितामहः ॥ यत्र गङ्गा महाराज स देशस्तत्तपोवनम्। सिद्धक्षेत्रं च विज्ञेयं गङ्गातीरसमाश्रितम् ॥
(स्वर्ग- ३९।८६-८७, ८९-९०)