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स्वर्गखण्ड ]
. मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना .
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परम उत्तम विष्णुलोकको प्राप्त होता है?' इस प्रकार प्रसङ्गको जानकर ही आप यहाँ पधारे हैं [फिर आपसे सोचते हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिर अत्यन्त विकल हो गये। क्या कहना है । , उस समय महातपस्वी मार्कण्डेयजी काशीमें थे। मार्कण्डेयजीने कहा-महाबाहो ! सुनोउन्हें युधिष्ठिरकी अवस्थाका ज्ञान हो गया; इसलिये वे जहाँ धर्मकी व्यवस्था है, उस शास्त्र में संग्राममें युद्ध तुरंत ही हस्तिनापुरमें जा पहुँचे और राजमहलके द्वारपर करनेवाले किसी भी बुद्धिमान् पुरुषके लिये पापकी बात खड़े हो गये। द्वारपालने जब उन्हें देखा तो शीघ्र ही नहीं देखी गयी है। फिर विशेषतः क्षत्रियके लिये जो महाराजके पास जाकर कहा-'राजन् ! मार्कण्डेय मुनि राजधर्मके अनुसार युद्धमें प्रवृत्त हुआ है, पापकी आपसे मिलनेके लिये आये हैं और द्वारपर खड़े हैं। यह आशङ्का कैसे हो सकती है। अतः इस बातको हृदयमें
रखकर पापकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। महाभाग युधिष्ठिर ! तुम तीर्थकी बात जानना चाहते हो तो सुनो-पुण्य-कर्म करनेवाले मनुष्योंके लिये प्रयागकी यात्रा करना सर्वश्रेष्ठ है।
युधिष्ठिरने पूछा-भगवन् ! मैं यह सुनना चाहता हूँ कि प्रयागकी यात्रा कैसे की जाती है, वहाँ कैसा पुण्य होता है, प्रयागमें जिनकी मृत्यु होती है, उनकी क्या गति होती है तथा जो वहाँ स्नान और निवास करते हैं, उन्हें किस फलकी प्राप्ति होती है। ये सब बातें बताइये। मेरे मन में इन्हें सुननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा है। ___ मार्कण्डेयजीने कहा-वत्स! पूर्वकालमें ऋषियों और ब्राह्मणोंके मुँहसे जो कुछ मैंने सुना है, वह प्रयागका फल तुम्हें बताता हूँ। प्रयागसे लेकर प्रतिष्ठानपुर (झूसी), तक धर्मकी हृदसे लेकर वासुकिह्रदतक तथा कम्बल और अश्वतर नागोंके स्थान एवं
बहुमूलिक नामवाले नागोंका स्थान- यह सब समाचार सुनते ही धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत राजद्वारपर आ प्रजापतिका क्षेत्र है, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है। वहाँ पहुँचे और उनके शरणागत होकर बोले-'महामुने! स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं और जिनकी आपका स्वागत है। महाप्राज्ञ ! आपका स्वागत है। आज वहाँ मृत्यु होती है, वे फिर जन्म नहीं लेते। प्रयागमें ब्रह्मा मेरा जन्म सफल हुआ। आज मेरा कुल पवित्र हो गया। आदि देवता एकत्रित होकर प्राणियोंकी रक्षा करते हैं। आज आपका दर्शन होनेसे मेरे पितर तृप्त हो गये।' यों वहाँ और भी बहुत-से तीर्थ हैं, जो सब पापोंको कहकर युधिष्ठिरने मुनिको सिंहासनपर बिठाया और पैर हरनेवाले तथा कल्याणकारी हैं। उनका कई सौ वर्षोंमे घोकर पूजन-सामग्रियोंसे उनकी पूजा की। तब भी वर्णन नहीं किया जा सकता। स्वयं इन्द्र विशेषरूपसे मार्कण्डेयजीने कहा-'राजन् ! तुम व्याकुल क्यों हो रहे प्रयागतीर्थकी रक्षा करते हैं तथा भगवान् विष्णु हो? मेरे सामने अपना मनोभाव प्रकट करो।' देवताओंके साथ प्रयागके सर्वमान्य मण्डलकी रक्षा
युधिष्ठिर बोले-महामुने ! राज्यके लिये करते हैं। हाथमें शूल लिये हुए भगवान् महेश्वर प्रतिदिन हमलोगोंकी ओरसे जो बर्ताव हुआ है, उस सारे वहाँकै वटवृक्ष (अक्षयवट) की रक्षा करते हैं तथा