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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
- [संक्षिप्त पद्मपुराण
पर इसके लिये यह नाम व्यर्थ है। इस पृथ्वीपर न तो आ पहुंचे। मानो मेरे भाग्यने ही उन्हें भेज दिया था। यह विद्वान् हुआ और न गुणोका आधार ही।' यह उनका कहीं आश्रय नहीं था, वे निराहार रहते थे। सदा विचारकर मेरे धर्मात्मा पिताको बड़ा दुःख हुआ। वे आनन्दमें मन और निःस्पृह थे। प्रायः एकान्तमें ही रहा मुझसे बोले-'बेटा ! गुरुके घर जाओ और विद्या करते थे। बड़े दयालु और जितेन्द्रिय थे। परब्रह्ममें सीखो।' उनका यह कल्याणमय वचन सुनकर मैने उत्तर लीन, ज्ञानी, ध्यानी और समाधिनिष्ठ थे। मैं उन परम दिया-'पिताजी ! गुरुके घरपर बड़ा कष्ट होता है। बुद्धिमान् ज्ञान-स्वरूप महात्माकी शरणमें गया और वहाँ प्रतिदिन मार खानी पड़ती है, धमकाया जाता है। भक्तिसे मस्तक झुका उन्हें प्रणाम करके सामने खड़ा हो नींद लेनेकी भी फुरसत नहीं मिलती। इन गया। मैं दीनताको साक्षात् मूर्ति और मन्दभागी था। असुविधाओंके कारण मैं गुरुके मन्दिरपर नहीं जाना महात्माने मुझसे पूछा-'ब्रह्मन् ! तुम इतने शोकमग्न चाहता, मैं तो आपकी कृपासे यहीं स्वच्छन्दतापूर्वक कैसे हो रहे हो? किस अभिप्रायसे इतना दुःख भोगते खेलेंगा, खाऊँगा और सोऊँगा।'
हो ?' मैंने अपनी मूर्खताका सारा पूर्व-वृत्तान्त उनसे कह धर्मात्मा पिता मुझे मूर्ख समझकर बहुत दुःखी हुए सुनाया और निवेदन किया- 'मुझे सर्वज्ञता कैसे प्राप्त और बोले-'बेटा ! ऐसा दुःसाहस न करो। विद्या हो? इसीके लिये मैं दुःखी हूँ। अब आप ही मुझे सीखनेका प्रयत्न करो। विद्यासे सुख मिलता है, यश आश्रय देनेवाले हैं।'
और अतुलित कीर्ति प्राप्त होती है तथा ज्ञान, स्वर्ग और सिद्ध महात्माने कहा-ब्रह्मन् ! सुनो, मैं तुम्हारे उत्तम मोक्ष मिलता है; अतः विद्या सीखो* । विद्या सामने ज्ञानके स्वरूपका वर्णन करता हूँ। ज्ञानका कोई पहले तो दुःखका मूल जान पड़ती है, किन्तु पीछे वह आकार नहीं है [ज्ञान परमात्माका स्वरूप है । वह सदा बड़ी सुखदायिनी होती है। इसलिये तुम गुरुके घर जाओ सबको जानता है, इसलिये सर्वज्ञ है। मायामोहित मूढ़
और विद्या सीखो।' पिताके इतना समझानेपर भी मैं पुरुष उसे नहीं प्राप्त कर सकते। ज्ञान भगवतत्त्वके उनकी बात नहीं मानता और प्रतिदिन इधर-उधर चिन्तनसे उद्दीप्त होता है, उसकी कहीं भी तुलना नहीं है। घूम-फिरकर अपनी हानि किया करता था। विप्रवर ! ज्ञानसे ही परमात्माके स्वरूपका साक्षात्कार होता है। मेरा बर्ताव देखकर लोगोंने मेरा बड़ा उपहास किया, मेरो चन्द्रमा और सूर्य आदिके प्रकाशसे उसका दर्शन नहीं बड़ी निन्दा हुई । इससे मैं बहुत लजित हुआ। जान पड़ा किया जा सकता। ज्ञानके न हाथ हैं न पैर; न नेत्र है न यह लज्जा मेरे प्राण लेकर रहेगी। तब मैं विद्या पढ़नेको कान । फिर भी वह सर्वत्र गतिशील है। सबको ग्रहण तैयार हुआ। [अवस्था अधिक हो चुकी थी,] सोचने करता और देखता है। सब कुछ संघता तथा सबकी लगा-'किस गुरुके पास चलकर पढ़ानेके लिये प्रार्थना बातें सुनता है। स्वर्ग, भूमि और पाताल-तीनों लोकोंमें करूँ?' इस चिन्तामें पड़कर मैं दुःख-शोकसे व्याकुल प्रत्येक स्थानपर वह व्यापक देखा जाता है। जिनकी हो उठा। 'कैसे मुझे विद्या प्राप्त हो? किस प्रकार मैं बुद्धि दूषित है, वे उसे नहीं जानते । ज्ञान सदा प्राणियोंके गुणोंका उपार्जन करूँ? कैसे मुझे स्वर्ग मिले और किस हृदयमें स्थित होकर काम आदि महाभोगों तथा महामोह तरह मैं मोक्ष प्राप्त करू?' यही सब सोचते-विचारते आदि सब दोषोंको विवेककी आगसे दग्ध करता रहता मेरा बुढ़ापा आ गया।
है। अतः पूर्ण शान्तिमय होकर इन्द्रियोंके विषयोंका एक दिनकी बात है, मैं बहुत दुःखी होकर एक मर्दन-उनकी आसक्तिका नाश करना चाहिये। इससे देवालयमें बैठा था; वहाँ अकस्मात् कोई सिद्ध महात्मा समस्त तात्त्विक अर्थोका साक्षात्कार करानेवाला ज्ञान
* विद्यया प्राप्यते सौख्यं यशः कीर्तिस्तथातुला । ज्ञानं स्वर्गः सुमोक्षच तस्माद्विद्या प्रसाधय। (१२२ । २५-२६)