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स्वर्गखण्ड ]
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• भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान •
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तीर्थयात्रामें प्रवृत्त होकर समूची पृथ्वीकी परिक्रमा करता है, उसको क्या फल मिलता है ? ब्रह्मन् ! इस बातको आप पूर्णरूपसे बतानेकी कृपा करें।'
नारदजी बोले – राजन्! पहलेकी बात है, राजाओं में श्रेष्ठ दिलीप धर्मानुकूल व्रतका नियम लेकर गङ्गाजीके तटपर मुनियोंकी भाँति निवास करते थे। कुछ कालके बाद एक दिन जब महामना दिलीप जप कर रहे थे, उसी समय उन्हें ऋषियोंमें श्रेष्ठ वसिष्ठजीका दर्शन हुआ। महर्षिको उपस्थित देख राजाने उनका विधिवत् पूजन किया और कहा – 'उत्तम व्रतका पालन करने वाले मुनिश्रेष्ठ ! मैं आपका दास दिलीप हूँ। आज आपका दर्शन पाकर मैं सब पापोंसे मुक्त हो गया।'
वसिष्ठजीने कहा- महाभाग ! तुम धर्मके ज्ञाता हो। तुम्हारे विनय, इन्द्रियसंयम तथा सत्य आदि गुणोंसे मैं सर्वथा संतुष्ट हूँ। बोलो, तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूँ ?
दिलीप बोले- मुने! आप प्रसन्न हैं, इतनेसे ही मैं अपनेको कृतकृत्य समझता हूँ। तपोधन! जो (तीर्थ यात्राके उद्देश्यसे ) सारी पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करता है, उसको क्या फल मिलता है ? यह मुझे बताइये ।
वसिष्ठजीने कहा - तात! तीथका सेवन करनेसे जो फल मिलता है, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनो। तीर्थं ऋषियोंके परम आश्रय है। मैं उनका वर्णन करता हूँ। वास्तवमें तीर्थसेवनका फल उसे ही मिलता है जिसके हाथ, पैर और मन अच्छी तरह अपने वशमें हों; जो विद्वान्, तपस्वी और कीर्तिमान् हो तथा जिसने दान लेना छोड़ दिया हो। जो संतोषी, नियमपरायण, पवित्र, अहंकारशून्य और उपवास (व्रत) करनेवाला हो; जो अपने आहार और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर चुका हो, जो सब दोषोंसे मुक्त हो तथा जिसमें क्रोधका अभाव हो जो सत्यवादी, दृढप्रतिज्ञ तथा सम्पूर्ण भूतोंके प्रति अपने जैसा भाव रखनेवाला हो, उसीको तीर्थका पूरा फल प्राप्त होता है। राजन् ! दरिद्र मनुष्य यज्ञ नहीं कर सकते; क्योंकि उसमें नाना प्रकारके साधन और
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सामग्रीको आवश्यकता होती है। कहीं कोई राजा या धनवान् पुरुष ही यशका अनुष्ठान कर पाते हैं। इसलिये मैं तुम्हें वह शास्त्रोक्त कर्म बतला रहा हूँ, जिसे दरिद्र मनुष्य भी कर सकते हैं तथा जो पुण्यकी दृष्टिसे यज्ञफलोंकी समानता करनेवाला है; उसे ध्यान देकर सुनो। पुष्कर तीर्थमें जाकर मनुष्य देवाधिदेवके समान हो जाता है। महाराज! दिव्यशक्तिसे सम्पन्न देवता, दैत्य तथा ब्रह्मर्षिगण वहाँ तपस्या करके महान् पुण्यके भागी हुए हैं; जो मनीषी पुरुष मनसे भी पुष्कर तीर्थके सेवनकी इच्छा करता है, उसके सब पाप धुल जाते हैं तथा वह स्वर्गलोकमें पूजित होता है। इस तीर्थ में पितामह ब्रह्माजी सदा प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। महाभाग ! पुष्करमें आकर देवता और ऋषि भी महान् पुण्यसे युक्त हो परमसिद्धिको प्राप्त हुए हैं। जो वहाँ स्नान करके पितरों और देवताओंके पूजनमें प्रवृत्त होता है, उसके लिये मनीषी विद्वान् अश्वमेधसे दसगुने पुण्यकी प्राप्ति बतलाते हैं। जो पुष्करके वनमें जाकर एक ब्राह्मणको भी भोजन कराता है, वह उसके पुण्यसे ब्रह्मधाममें स्थित अजित लोकोंको प्राप्त होता है। जो सायंकाल और प्रातः कालमें हाथ जोड़कर पुष्कर तीर्थका चिन्तन करता है, वह सब तीथोंमें स्नान करनेका फल प्राप्त करता है। पुष्करमें जाने मात्र से स्त्री या पुरुषके जन्मभरके किये हुए सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे भगवान् विष्णु सम्पूर्ण देवताओंके आदि हैं, उसी प्रकार पुष्कर भी समस्त तीर्थोका आदि कहलाता है। पुष्करमें नियम और पवित्रतापूर्वक बारह वर्षतक निवास करके मनुष्य सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है और अन्तमें ब्रह्मलोकको जाता है। जो पूरे सौ वर्षोंतक अग्रिहोत्रका अनुष्ठान करता है अथवा केवल कार्तिकको पूर्णिमाको पुष्करमें निवास करता है, उसके ये दोनों कर्म समान ही हैं। पहले तो पुष्करमें जाना ही कठिन है। जानेपर भी वहाँ तपस्या करना और भी कठिन है। पुष्करमें दान देना उससे भी कठिन है और सदा वहाँ निवास करना तो बहुत ही मुश्किल है।