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.. अर्चयवाचीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .. .
[ संक्षिप्त पयपुराण
समस्त आश्रमोंके लिये धर्म है। मनुष्यको चाहिये कि इतिहासका वर्णन करता हूँ। पूर्वकालके सत्ययुगकी बात वह भगवान् वासुदेवको प्रसन्नता, समस्त पापोंकी है। निषध नामक सुन्दर नगरमें एक वैश्य रहते थे। निवृत्ति तथा स्वर्गलोककी प्राप्तिके लिये यमुनाके जलमें उनका नाम हेमकुण्डल था। वे उत्तम कुलमें उत्पत्र सान करे। यदि यमुना-सानका अवसर न मिला तो होनेके साथ ही सत्कर्म करनेवाले थे। देवता, ब्राह्मण सुन्दर, सुपुष्ट, बलिष्ठ एवं नाशवान् शरीरकी रक्षा और अग्निकी पूजा करना उनका नित्यका नियम था । वे करनेसे क्या लाभ।
खेती और व्यापारका काम करते थे। पशुओंके पालनविष्णुभक्तिसे रहित ब्राह्मण, विद्वान् पुरुषोंसे रहित पोषणमें तत्पर रहते थे। दूध, दही, मट्ठा, घास, लकड़ी, श्राद्ध, ब्राह्मणभक्तिसे शून्य क्षत्रिय, दुराचारसे दूषित फल, मूल, लवण, अदरख, पीपल, धान्य, शाक, तैल, कुल, दम्भयुक्त धर्म, क्रोधपूर्वक किया हुआ तप, भाँति-भांतिके वस्त्र, धातुओंके सामान और ईखके रससे दृढ़तारहित ज्ञान, प्रमादपूर्वक किया हुआ शास्त्राध्ययन, बने हुए खाद्य पदार्थ (गुड़, खाँड़, शक्कर आदि)परपुरुषमें आसक्ति रखनेवाली नारी, मदयुक्त ब्रह्मचारी, इन्हीं सब वस्तुओंको सदा बेचा करते थे। इस तरह नाना बुझी हुई आगमें किया हुआ हवन, कपटपूर्ण भक्ति, प्रकारके अन्यान्य उपायोंसे वैश्यने आठ करोड़ जीविकाका साधन बनी हुई कन्या, अपने लिये बनायी स्वर्णमुद्राएँ पैदा की। इस प्रकार व्यापार करते-करते हुई रसोई, शूद्र संन्यासीका साधा हुआ योग, कृपणका उनके कानोतकके बाल सफेद हो गये। तदनन्तर उन्होंने धन, अभ्यासरहित विद्या, विरोध पैदा करनेवाला ज्ञान, अपने चित्तमें संसारकी क्षणभङ्गरताका विचार करके उस जीविकाके साधन बने हुए तीर्थ और व्रत, असत्य और धनके छठे भागसे धर्मका कार्य करना आरम्भ किया। चुगलीसे भरी हुई वाणी, छ: कानोंमें पहुँचा हुआ गुप्त भगवान् विष्णुका मन्दिर तथा शिवालय बनवाये, पोखरा मन्त्र, चञ्चल चित्तसे किया हुआ जप, अश्रोत्रियको दिया खुदवाया तथा बहुत-सी बावलियाँ बनवायीं। इतना ही हुआ दान, नास्तिक मनुष्य तथा अश्रद्धापूर्वक किया नहीं, उन्होंने बरगद, पीपल, आम, जामुन और नीम हुआ समस्त पारलौकिक कर्म-ये सब-के-सब जिस आदिके जंगल लगवाये तथा सुन्दर पुष्पवाटिका भी प्रकार नष्टप्राय माने गये हैं, वैसे ही यमुना-सानके बिना तैयार करायी। सूर्योदयसे लेकर सूर्यास्ततक अन्न-जल मनुष्योंका जन्म भी नष्ट ही है। मन, वाणी और क्रिया- बाँटनेकी उन्होंने व्यवस्था कर रखी थी। नगरके बाहर द्वारा किये हुए आई, शुष्क, लघु और स्थूल-सभी चारों ओर अत्यन्त शोभायमान पौंसले बनवा दिये थे। प्रकारके पापोंको यमुनाका स्रान दग्ध कर देता है; ठीक राजन् ! पुराणों में जो-जो दान प्रसिद्ध हैं, वे सभी दान उन उसी तरह, जैसे आग लकड़ीको जला डालती है। धर्मात्मा वैश्यने दिये थे। वे सदा ही दान, देवपूजा तथा राजन् ! जैसे भगवान् विष्णुको भक्तिमें सभी मनुष्योंका अतिथि-सत्कारमें लगे रहते थे। अधिकार है, उसी प्रकार यमुनादेवी सदा सबके पापोंका इस प्रकार धर्मकार्यमें लगे हुए वैश्यके दो पुत्र नाश करनेवाली हैं। यमुनामें किया हुआ स्नान ही हुए। उनके नाम थे-श्रीकुण्डल और विकुण्डल । उन सबसे बड़ा मन्त्र, सबसे बड़ी तपस्या और सबसे बढ़कर दोनोंके सिरपर घरका भार छोड़कर हेमकुण्डल तपस्या प्रायश्चित्त है। यदि मथुराको यमुना प्राप्त हो जाये तो करनेके लिये वनमें चले गये। वहाँ उन्होंने सर्वश्रेष्ठ वे मोक्ष देनेवाली मानी गयी हैं। अन्यत्रकी यमुना देवता वरदायक भगवान् गोविन्दकी आराधनामें संलग्न पुण्यमयी तथा महापातकोंका नाश करनेवाली हैं, हो तपस्याद्वारा अपने शरीरको क्षीण कर डाला । तथा किन्तु मथुरामें बहनेवाली यमुनादेवी विष्णुभक्ति प्रदान निरन्तर श्रीवासुदेवमें मन लगाये रहनेके कारण वे करती है।
वैष्णव-धामको प्राप्त हुए, जहाँ जाकर मनुष्यको शोक राजन्! इस विषयमें मैं तुमसे एक प्राचीन नहीं करना पड़ता । तत्पश्चात् उस वैश्यके दोनों पुत्र जब