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..... अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ,
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[संक्षिप्त पापुराण
पत्तोंसे उसके सारे अङ्ग छिद जायेंगे। मुगदरोंकी मारसे तिर्यग्योनियोंमें जन्म लेते हैं और अन्तमें मनुष्य-योनिके उसकी धज्जियाँ उड़ जायेंगी। शिलाकी चट्टानोंपर भीतर जन्मसे अंधे, काने, कुबड़े, पङ्ग, दरिद्र तथा पटककर उसे चूर-चूर कर दिया जायगा तथा वह अङ्गहीन होकर उत्पन्न होते हैं। दहकते हुए अङ्गारोंमें भूना जायगा।
• इसलिये जो दोनों लोकोंमें सुख पाना चाहता है, . दूतकी यह बात सुनकर विकुण्डलको भाईके उस धर्मज्ञ पुरुषको उचित है कि इस लोक और दुःखसे बड़ा दुःख हुआ। उसके सारे शरीरके रोंगटे खड़े परलोकमें मन, वाणी तथा क्रियाके द्वारा किसी भी हो गये। वह दीन और विनीत होकर बोला-'साधो! जीवकी हिंसा न करे । प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले लोग सत्पुरुषोंमें सात पग साथ चलनेमात्रसे मैत्री हो जाती है दोनों लोकोंमें कहीं भी सुख नहीं पाते। जो किसी तथा वह उत्तम फल देनेवाली होती है; अतः आप जीवकी हिंसा नहीं करते, उन्हें कहीं भी भय नहीं होता। मित्रभावका विचार करके मेरा उपकार करें। मैं आपसे जैसे नदियाँ समुद्रमें मिलती हैं, उसी प्रकार समस्त धर्म उपदेश सुनना चाहता हूँ। मेरी समझमें आप सर्वज्ञ है; अहिंसामें लय हो जाते हैं-यह निश्चित बात है। अतः कृपा करके बताइये, मनुष्य किस कर्मके वैश्यप्रवर ! जिसने इस लोकमें सम्पूर्ण भूतोंको अनुष्ठानसे यमलोकका दर्शन नहीं करते तथा कौन-सा अभयदान कर दिया है, उसीने सम्पूर्ण तीर्थोमें स्नान कर्म करनेसे वे नरकमें जाते हैं?'
किया है तथा वह सम्पूर्ण यज्ञोंकी दीक्षा ले चुका है। देवदूतने कहा-जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा वर्णाश्रमधर्ममें स्थित होकर शास्त्रोक्त आज्ञाका पालन कभी किसी भी अवस्थामें दूसरोंको पीड़ा नहीं देते, वे करनेवाले समस्त जितेन्द्रिय मनुष्य सनातन ब्रह्मलोकको यमराजके लोकमें नहीं जाते। अहिंसा परम धर्म है, प्राप्त होते हैं। जो इष्ट' और पूर्तमें लगे रहते हैं, अहिंसा ही श्रेष्ठ तपस्या है तथा अहिंसाको ही मुनियोंने पञ्चयज्ञोंका अनुष्ठान किया करते हैं, जिनके मनमें सदा सदा श्रेष्ठ दान बताया है।* जो मनुष्य दयालु हैं वे दया भरी रहती है, जो विषयोंकी ओरसे निवृत्त, मच्छर, साँप, डाँस, खटमल तथा मनुष्य-सबको सामर्थ्यशाली, वेदवादी तथा सदा अग्निहोत्रपरायण हैं, वे अपने ही समान देखते हैं। जो अपनी जीविकाके लिये ब्राह्मण स्वर्गगामी होते हैं। शत्रुओंसे घिरे होनेपर भी जलचर और थलचर जीवोंकी हत्या करते हैं, वे जिनके मुखपर कभी दीनताका भाव नहीं आता, जो कालसूत्र नामक नरकमें पड़कर दुर्गति भोगते हैं। वहाँ शूरवीर हैं, जिनकी मृत्यु संग्राममें ही होती है; जो अनाथ उन्हें कुत्तेका मांस खाना तथा पीब और रक्त पीना पड़ता स्त्रियों, ब्राह्मणों तथा शरणागतोंकी रक्षाके लिये अपने है। वे चबींकी कीचमें डूबकर अधोमुखी कीड़ोंके द्वारा प्राणोंकी बलि दे देते हैं तथा जो पङ्ग, अन्ध, बाल-वृद्ध,
से जाते हैं। अँधेरेमें पड़कर वे एक-दूसरेको खाते और अनाथ, रोगी तथा दरिद्रोंका सदा पालन-पोषण करते हैं, परस्पर आघात करते हैं। इस अवस्थामें भयङ्कर चीत्कार वे सदा स्वर्गमें रहकर आनन्द भोगते हैं। जो कीचड़में करते हुए वे एक कल्पतक वहाँ निवास करते हैं। फँसी हुई गाय तथा रोगसे आतुर ब्राह्मणको देखकर नरकसे निकलनेपर उन्हें दीर्घकालतक स्थावर-योनिमें उनका उद्धार करते हैं, जो गौओंको ग्रास अर्पण करते, रहना पड़ता है। उसके बाद वे क्रूर प्राणी सैकड़ों बार गौओंकी सेवा-शुश्रूषामें रहते तथा गौओंकी पीठपर
• अहिंसा परमो धर्मो ह्यहिसैव परं तपः । अहिंसा परमं दानमित्याहुर्मुनयः सदा ॥ (३१४२७)
१. अग्रिहोत्र, तप, सत्य, यज्ञ, दान, वेदरक्षा, आतिथ्य, वैश्वदेव और ध्यान आदि धार्मिक कार्योको 'इष्ट' कहते हैं। २. बावली, कुआँ, तालाब, देवमन्दिर और धर्मशाला बनवाना तथा बगीचे लगाना आदि कार्य पूर्त कहलाते हैं । ३. बहायज्ञ, देवयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ तथा भूतयज्ञ-ये ही पञ्चयज्ञ कहे गये है।