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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। शालग्राम-शिलाकी पूजा करता है वह भगवान् विष्णुको नमस्कार करनेसे ही मिल करनेवाला मानव पापी हो तो भी नरक, गर्भवास, जाता है।* मनुष्य मोहके वशीभूत होकर अनेकों पाप तिर्यग्योनि तथा कीट-योनिको नहीं प्राप्त होता। गङ्गा, करके भी यदि सर्वपापापहारी श्रीहरिके चरणों में मस्तक गोदावरी और नर्मदा आदि जो-जो मुक्तिदायिनी नदियाँ झुकाता है तो वह नरकमें नहीं जाता। भगवान् विष्णुके हैं, वे सब-की-सब शालग्राम-शिलाके जलमें निवास नामोंका संकीर्तन करनेसे मनुष्य भूमण्डलके समस्त करती हैं। शालग्राम-शिलाके लिङ्गका एक बार भी तीर्थों और पुण्यस्थानोंके सेवनका पुण्य प्राप्त कर लेता पूजन करनेपर ज्ञानसे रहित मनुष्य भी मोक्ष प्राप्त कर लेते है। जो शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवान् विष्णुकी हैं। जहाँ शालग्राम-शिलारूपी भगवान् केशव शरणमें जा चुके हैं, वे शरणागत मनुष्य न तो यमराजके विराजमान रहते हैं, वहाँ सम्पूर्ण देवता, यज्ञ एवं चौदह लोकमें जाते हैं और न नरकमें ही निवास करते हैं। भुवनोंके प्राणी वर्तमान रहते हैं। जो मनुष्य शालग्राम- वैश्य ! जो वैष्णव पुरुष शिवकी निन्दा करता है, शिलाके निकट श्राद्ध करता है, उसके पितर सौ वह विष्णुके लोकमें नहीं जाता; उसे महान् नरकमें गिरना कल्पोतक धुलोकमें तृप्त रहते हैं। जहाँ शालग्राम-शिला पड़ता है। जो मनुष्य प्रसङ्गवश किसी भी एकादशीको रहती है, वहाँकी तीन योजन भूमि तीर्थस्वरूप मानी गयी उपवास कर लेता है, वह यमयातनामें नहीं पड़ता-यह है। वहाँ किये हुए दान और होम सब कोटिगुना अधिक बात हमने महर्षि लोमशके मुखसे सुनी है। एकादशीसे फल देते हैं। जो एक बूंदके बराबर भी शालग्राम- बढ़कर पावन तीनों लोकोंमें दूसरा कुछ भी नहीं है। शिलाका जल पी लेता है, उसे फिर माताके स्तनोंका दूध एकादशी और द्वादशी–दोनों ही भगवान् विष्णुके दिन नहीं पीना पड़ता; वह मनुष्य भगवान् विष्णुको प्राप्त कर हैं और समस्त पातकोंका नाश करनेवाले हैं। इस शरीरमें लेता है। जो शालग्राम-शिलाके चक्रका उत्तम दान देता तभीतक पाप निवास करते हैं, जबतक प्राणी भगवान् है, उसने पर्वत, वन और काननोंसहित मानो समस्त विष्णुके शुभ दिन एकादशीको उपवास नहीं करता। भूमण्डलका दान कर दिया। जो मनुष्य शालग्राम- हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ एकादशीके शिलाको बेचकर उसकी कीमत उगाहता है, वह विक्रेता, उपवासकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं है। मनुष्य उसकी बिक्रीका अनुमोदन करनेवाला तथा उसकी परख अपनी ग्यारहों इन्द्रियोंसे जो पाप किये होता है, वह सब करते समय अधिक प्रसन्न होनेवाला-ये सभी नरकमें एकादशीके अनुष्ठानसे नष्ट हो जाता है। एकादशी व्रतके जाते हैं और जबतक सम्पूर्ण भूतोंका प्रलय नहीं हो समान दूसरा कोई पुण्य इस संसारमें नहीं है। यह जाता, तबतक वहीं बने रहते हैं।
एकादशी शरीरको नीरोग बनानेवाली और स्वर्ग तथा वैश्य ! अधिक कहनेसे क्या लाभ? पापसे मोक्ष प्रदान करनेवाली है। वैश्य ! एकादशीको दिनमें डरनेवाले मनुष्यको सदा भगवान् वासुदेवका स्मरण उपवास और रातमें जागरण करके मनुष्य पितृकुल, करना चाहिये। श्रीहरिका स्मरण समस्त पापोंको मातृकुल तथा पत्नीकुलकी दस-दस पूर्व पीढ़ियोंका हरनेवाला है। मनुष्य वनमें रहकर अपनी इन्द्रियोंका निश्चय ही उद्धार कर देता है। संयम करते हुए घोर तपस्या करके जिस फलको प्राप्त मन, वाणी, शरीर तथा क्रियाद्वारा किसी भी
* बहुनोक्तेन कि वैश्य कर्तव्य पापभीरुणा । स्मरणं वासुदेवस्य सर्वपापहरे हरेः ।। तपस्तप्त्वा नरो पोरमरण्ये नियतेन्द्रियः । यत्फलं समवाप्रोति तत्रत्वा गरुडध्वजम्॥
(३१ । १४८-१४९)