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स्वर्गखण्ड ]
- पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपर्दीवरका माहात्म्य.
स्थित है तथा उस पुरीमें ही नित्य-विमुक्त तत्त्वकी स्थिति और शरीरके द्वारा कभी पाप नहीं करना चाहिये। है। वाराणसीसे उत्तम दूसरा कोई स्थान न हुआ है और नारदजी कहते हैं-राजन् ! जैसे देवताओंमें न होगा। जहाँ स्वयं भगवान् नारायण और देवेश्वर मैं पुरुषोत्तम नारायण श्रेष्ठ हैं, जिस प्रकार ईश्वरोमें विराजमान हूँ। देवि ! जो महापातकी हैं तथा जो उनसे महादेवजी श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार समस्त तीर्थस्थानोंमें यह भी बढ़कर पापाचारी हैं, वे सभी वाराणसीपुरीमें जानेसे काशीपुरी उत्तम है। जो लोग सदा इस पुरीका स्मरण परमगतिको प्राप्त होते हैं। इसलिये मुमुक्षु पुरुषको और नामोच्चारण करते हैं, उनका इस जन्म और मृत्युपर्यन्त नियमपूर्वक वाराणसीपुरीमें निवास करना पूर्वजन्मका भी सारा पातक तत्काल नष्ट हो जाता है; चाहिये। वहाँ मुझसे ज्ञान पाकर वह मुक्त हो जाता है।* इसलिये योगी हो या योगरहित, महान् पुण्यात्मा हो किन्तु जिसका चित्त पापसे दूषित होगा, उसके सामने अथवा पापी-प्रत्येक मनुष्यको पूर्ण प्रयत्न करके नाना प्रकारके विघ्न उपस्थित होंगे। अतः मन, वाणी वाराणसीपुरीमें निवास करना चाहिये।
पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपर्दीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शङ्ककर्ण मुनिके मुक्त
होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
नारदजी कहते हैं-युधिष्ठिर ! वाराणसीपुरीमे पूर्वकालकी बात है, कपीश्वर क्षेत्रमें उत्तम व्रतका कपर्दीश्वरके नामसे प्रसिद्ध एक शिवलिङ्ग है, जो पालन करनेवाले एक तपस्वी ब्राह्मण रहते थे। उनका अविनाशी माना गया है। वहाँ स्नान करके पितरोंका नाम था-शङ्ककर्ण। वे प्रतिदिन भगवान् शङ्करका विधिवत् तर्पण करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो पूजन, रुद्रका पाठ तथा निरन्तर ब्रह्मस्वरूप प्रणवका जप जाता है तथा भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। करते थे। उनका चित्त योगमें लगा हुआ था। वे काशीपुरीमें निवास करनेवाले पुरुषोंके काम, क्रोध आदि मरणपर्यन्त काशीमें रहनेका नियम लेकर पुष्प, धूप दोष तथा सम्पूर्ण विघ्न कपीश्वरके पूजनसे नष्ट हो जाते आदि उपचार, स्तोत्र, नमस्कार और परिक्रमा आदिके हैं। इसलिये परम उत्तम कपर्दीश्वरका सदैव दर्शन करना द्वारा भगवान् कपर्दीश्वरकी आराधना करते थे। एक दिन चाहिये। यत्नपूर्वक उनका पूजन तथा वेदोक्त स्तोत्रों- उन्होंने देखा, एक भूखा प्रेत सामने आकर खड़ा है। उसे द्वारा उनका स्तवन भी करना चाहिये। कपर्दीश्वरके देख मुनिश्रेष्ठ शङ्ककर्णको बड़ी दया आयी। उन्होंने स्थानमें नियमपूर्वक ध्यान लगानेवाले शान्तचित्त पूछा-'तुम कौन हो? और किस देशसे यहाँ आये योगियोंको छः मासमें ही योगसिद्धि प्राप्त होती है- हो?' पिशाच भूखसे पीड़ित हो रहा था। उसने इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पिशाचमोचन कुण्डमें शकर्णसे कहा-'मुने! मैं पूर्वजन्ममें धन-धान्यसे नहाकर कपर्दीश्वरके पूजनसे मनुष्यके ब्रह्महत्या आदि सम्पन्न ब्राह्मण था। मेरा घर पुत्र-पौत्रादिसे भरा था। पाप नष्ट हो जाते हैं।
किन्तु मैंने केवल कुटुम्बके भरण-पोषणमें आसक्त
* यत्र साक्षान्महादेवो देहान्ते स्वयमीश्वरः । व्याचष्टे तारकं ब्रह्म तत्रैव विमुक्तके।
वरणायास्तथा चास्या मध्ये वाराणसी पुरी। तत्रैव संस्थितं तत्त्वं नित्यमेवं विमुक्तकम्। वाराणस्याः परं स्थानं न भूतं न भविष्यति । यत्र नारायणो देवो महादेवो दिवीश्वरः॥ महापातकिनो देवि ये तेभ्यः पापकृतमाः । वाराणसी समासाद्य ते यान्ति परमां गतिम्॥ तस्मा मुमुक्षुनियतो वसे? मरणान्तकम् । वाराणस्यां महादेवाज्ज्ञानं लब्ध्या विमुच्यते ॥
(३३ । ४६, ४९, ५०, ५२-५३)