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स्वर्गखण्ड ]
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पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपर्दीश्वरका माहात्य •
आपकी शरण ग्रहण करता हूँ।*
इस प्रकार भगवान् कपर्दीकी स्तुति करके शङ्कुकर्ण प्रणवका उच्चारण करते हुए पृथ्वीपर दण्डकी भाँति पड़ गये। उसी समय शिवस्वरूप उत्कृष्ट लिङ्गका प्रादुर्भाव हुआ, जो ज्ञानमय तथा अनन्त आनन्दस्वरूप था। आगकी भाँति उससे करोड़ों लपटें निकल रही थीं। महात्मा शङ्कुकर्ण मुक्त होकर सर्वव्यापी निर्मल शिवस्वरूप हो गये और उस विमल लिङ्गमें समा गये। राजन् ! यह मैंने तुम्हें कपर्दीका गूढ़ माहात्म्य बतलाया है। जो प्रतिदिन इस पापनाशिनी कथाका श्रवण करता है, वह निष्पाप एवं शुद्धचित्त होकर भगवान् शिवके समीप जाता है। जो प्रातः काल और मध्याह्नके समय शुद्ध होकर सदा ब्रह्मपार नामक इस महास्तोत्रका पाठ करता है, उसे परम योगकी प्राप्ति होती है।
तदनन्तर गयामें जाकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए एकाग्रचित्त होकर स्नान करे। भारत! वहाँ जानेमात्रसे मनुष्यको अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। वहाँ अक्षयवट नामका वटवृक्ष है, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है। राजन् ! वहाँ पितरोंके लिये जो पिण्डदान किया जाता है, वह अक्षय होता है। उसके बाद महानदीमें स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण करे। इससे मनुष्य अक्षय लोकोंको प्राप्त होता तथा अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। तत्पश्चात् ब्रह्मारण्यमें स्थित ब्रह्मसरकी यात्रा करे। वहाँ जानेसे पुण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त होता है।
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राजेन्द्र ! वहाँसे विश्वविख्यात धेनुक तीर्थको प्रस्थान करे और वहाँ एक रात रहकर तिलकी धेनु दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष सब पापोंसे शुद्ध हो निश्चय ही सोमलोकमें जाता है। वहाँ बछड़ेसहित कपिला गौके पदचिह्न आज भी देखे जाते हैं। उन पदचिह्नोंमेंसे जल लेकर आचमन करनेसे जो कुछ घोर पाप होता है, वह नष्ट हो जाता है वहाँसे गृधवटकी यात्रा करे। वह शूलधारी भगवान् शङ्करका स्थान है। वहाँ शङ्करजीका दर्शन करके भस्म स्नान करे – सारे अङ्गोंमें भस्म लगाये। ऐसा करनेवाला यदि ब्राह्मण हो तो उसे बारह वर्षोंतक व्रत करनेका फल प्राप्त होता है और अन्य वर्णके मनुष्योंका सारा पाप नष्ट हो जाता है। तत्पश्चात् उदय पर्वतपर जाय वहाँ सावित्रीके चरणचिह्नोंका दर्शन होता है। उस तीर्थमें सन्ध्योपासन करना चाहिये। इससे एक ही समयमें बारह वर्षोंतक सन्ध्या करनेका फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् वहीं योनिद्वारके पास जाय। वह विख्यात स्थान है। उसके पास जानेमात्रसे मनुष्य गर्भवासके कष्टसे छुटकारा पा जाता है। राजन् ! जो मनुष्य शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षोंमें गयामें निवास करता है, वह अपने कुलकी सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है— इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
राजन् ! तत्पश्चात् तीर्थसेवी मनुष्य फल्गु नदीके किनारे जाय। वहाँ जानेसे वह अश्वमेध यज्ञका फल पाता और परम सिद्धिको प्राप्त होता है। तदनन्तर एकाग्रचित्त हो धर्मपृष्ठको यात्रा करे, जहाँ धर्मका
* कपर्दिनं त्वां परतः परस्ताद् गोप्तारमेकं पुरुषं पुराणम्। व्रजामि योगेश्वरमीशितारमादित्यमग्नि कपिलाधिरूढम् ॥ त्वां ब्रह्मसारं हृदि संनिविष्टं हिरण्मयं योगिनमादिमन्तम् । व्रजामि रुद्रं शरणं दिविष्ठं महामुनिं ब्रह्ममयं पवित्रम् ॥ सहस्रपादाक्षिशिरोऽभियुक्तं सहस्ररूपं तमसः परस्तात् । तं ब्रह्मपारं प्रणमामि शम्भुं हिरण्यगर्भादिपतिं त्रिनेत्रम् ॥ यत्र प्रसूतिर्जगतो विनाशो येनावृतं सर्वमिदं शिवेन तं ब्रह्मपारं भगवन्तमीशं प्रणम्य नित्यं शरणं प्रपद्ये ॥ अलिङ्गमालोकविहीनरूपं स्वयंप्रभुं चित्पतिमेकरूपम्। तं ब्रह्मपारं परमेश्वरं त्वां नमस्करिष्ये न यतोऽन्यदस्ति ॥ यं योगिनस्त्यक्तसबीजयोगा लब्ध्वा समाधिं परमात्मभूताः । पश्यन्ति देवं प्रणतोऽस्मि नित्यं तं ब्रह्मपारं भवतः स्वरूपम् ॥ न यत्र नामादिविशेषप्तिर्न संदृशे तिष्ठति यत्स्वरूपम्। तं ब्रह्मपारं प्रणतोऽस्मि नित्यं स्वयम्भुवं त्वां शरणं प्रपद्ये ॥ यद् वेदवादाभिरता विदेहं सब्रह्मविज्ञानमभेदमेकम् । पश्यन्त्यनेकं भवतः स्वरूपं तं ब्रह्मपारं प्रणतोऽस्मि नित्यम् ॥ यतः प्रधानं पुरुषः पुराणो विभर्ति तेजः प्रणमन्ति देवाः नमामि तं ज्योतिषि संनिविष्टं कालं वृहन्तं भवतः स्वरूपम् ॥ व्रजामि नित्यं शरणं गुहेशं स्थाणुं प्रपद्ये गिरिशं पुराणम् । शिवं प्रपद्ये हरमिन्दुमौलिं पिनाकिनं त्वां शरणं व्रजामि ॥
(३५ । ३४ - ४३ )