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स्वर्गखण्ड ] • धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोका वर्णन •
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प्राणीके साथ द्रोह न करना, इन्द्रियोंको रोकना, दान देना, पाँच पुत्र अग्निहोत्री हुए। उनका मन गृहस्थधर्मके श्रीहरिकी सेवा करना तथा वर्णों और आश्रमोंके अनुष्ठानमें लगता था। शेष चार ब्राह्मण-कुमार-जो कर्तव्योंका सदा विधिपूर्वक पालन करना-ये दिव्य निर्मोह, जितकाम, ध्यानकाष्ठ और गुपाधिकके नामसे गतिको प्राप्त करानेवाले कर्म हैं। वैश्य ! स्वर्गार्थी प्रसिद्ध थे-घरकी ओरसे विरक्त हो गये। वे सब मनुष्यको अपने तप और दानका अपने ही मुँहसे बखान सम्पूर्ण भोगोंसे निःस्पृह हो चतुर्थ-आश्रम-संन्यासमें नहीं करना चाहिये; जैसी शक्ति हो उसके अनुसार अपने प्रविष्ट हुए। वे सब-के-सब आसक्ति और परिग्रहसे हितकी इच्छासे दान अवश्य करते रहना चाहिये। दरिद्र शून्य थे। उनमें आकाङ्क्षा और आरम्भका अभाव था। पुरुषको भी पत्र, फल, मूल तथा जल आदि देकर वे मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णमें समान भाव रखते अपना प्रत्येक दिन सफल बनाना चाहिये। अधिक क्या थे। जिस किसी भी वस्तुसे अपना शरीर ढक लेते थे। कहा जाय, मनुष्य सदा और सर्वत्र अधर्म करनेसे जो कुछ भी खाकर पेट भर लेते थे। जहाँ साँझ हुई, वहीं दुर्गतिको प्राप्त होते हैं और धर्मसे स्वर्गको जाते है। ठहर जाते थे। वे नित्य भगवान्का ध्यान किया करते इसलिये बाल्यावस्थासे ही धर्मका संचय करना उचित थे। उन्होंने निद्रा और आहारको जीत लिया था। वे बात है। वैश्य ! ये सब बातें हमने तुम्हें बता दीं, अब और और शीतका कष्ट सहन करनेमें पूर्ण समर्थ थे तथा क्या सुनना चाहते हो?
समस्त चराचर जगत्को विष्णुरूप देखते हुए लीलापूर्वक वैश्य बोला-सौम्य ! आपकी बात सुनकर मेरा पृथ्वीपर विचरते रहते थे। उन्होंने परस्पर मौनव्रत धारण चित्त प्रसन्न हो गया। गङ्गाजीका जल और सत्पुरुषोंका कर लिया था। वे स्वल्प मात्रामें भी कभी किसी क्रियाका वचन-ये शीघ्र ही पाप नष्ट करनेवाले हैं। दूसरोंका अनुष्ठान नहीं करते थे। उन्हें तत्त्वज्ञानका साक्षात्कार हो उपकार करना और प्रिय वचन बोलना-यह साधु गया था। उनके सारे संशय दूर हो चुके थे और वे पुरुषोंका स्वाभाविक गुण है। अतः देवदूत ! आप कृपा चिन्मय तत्वके विचारमें अत्यन्त प्रवीण थे। करके मुझे यह बताइये कि मेरे भाईका नरकसे तत्काल वैश्य ! उन दिनों तुम अपने पूर्ववर्ती आठवें उद्धार कैसे हो सकता है?
जन्ममें एक गृहस्थ ब्राह्मणके रूपमें थे। तुम्हारा निवास देवदूतने कहा-वैश्य ! तुमने पूर्ववर्ती आठवें मध्यप्रदेशमें था। एक दिन उपर्युक्त चारों ब्राह्मण जन्ममें जिस पुण्यका संचय किया है, वह सब अपने संन्यासी किसी प्रकार घूमते-घामते मध्याह्नके समय भाईको दे डालो। यदि तुम चाहते हो कि उसे भी स्वर्गकी तुम्हारे घरपर आये। उस समय उन्हें भूख और प्यास प्राप्ति हो जाय तो तुम्हें यही करना चाहिये। सता रही थी। वलिवैश्वदेवके पश्चात् तुमने उन्हें अपने
विकुण्डलने पूछा-देवदूत ! वह पुण्य क्या घरके आँगनमें उपस्थित देखा। उनपर दृष्टि पड़ते ही है? कैसे हुआ? मेरे प्राचीन जन्मका परिचय क्या है? तुम्हारे नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये। तुम्हारी ये सब बातें बताइये; फिर मैं शीघ्र ही वह पुण्य भाईको वाणी गद्गद हो गयी, तुमने बड़े वेगसे दौड़कर उनके अर्पण कर दूंगा।
चरणोंमें साष्टाङ्ग प्रणाम किया। फिर बड़े आदरभावके देवदूतने कहा-पूर्वकालकी बात है, पुण्यमय साथ दोनों हाथ जोड़कर मधुर वाणीसे उन सबका मधुवनमें एक ऋषि रहते थे, जिनका नाम शाकुनि था, अभिनन्दन करते हुए कहा-महानुभाव ! आज मेरा वे तपस्या और स्वाध्यायमें लगे रहते थे और तेजमें जन्म और जीवन सफल हो गया। आज मुझपर भगवान् ब्रह्माजीके समान थे। उनके रेवती नामकी पत्नीके गर्भसे विष्णु प्रसन्न हैं। मैं सनाथ और पवित्र हो गया। आज नौ पुत्र उत्पन्न हुए, जो नवग्रहोंके समान शक्तिशाली थे। मैं, मेरा घर तथा मेरे सभी कुटुम्वी धन्य हो गये। आज उनमेंसे ध्रुव, शाली, बुध, तार और ज्योतिष्मान्–ये मेरे पितर धन्य हैं, मेरी गौएँ धन्य हैं, मेरा शास्त्राध्ययन