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. अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
संग्रह नहीं है, ऐसे अकिञ्चन मुनि श्रद्धालु होनेके कारण आधारपर रहनेवाले, शूर, दयालु, क्षमाशील, याज्ञिक ही स्वर्गको प्राप्त हुए है।*
तथा दानशील हैं, वे ही मनुष्य वहाँ जाने पाते हैं। वहाँ नृपश्रेष्ठ ! दानके कई प्रकार हैं। परन्तु अत्रदानसे किसीको रोग, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, जाड़ा, गर्मी, भूख, बढ़कर प्राणियोंको सद्गति प्रदान करनेवाला दूसरा कोई प्यास और ग्लानि नहीं सताती । राजन् ! ये तथा और भी दान नहीं है। इसलिये जलसहित अन्नका दान अवश्य बहुत-से स्वर्गलोकके गुण हैं। अब वहाँकै दोषोंका करना चाहिये। दानके समय मधुर और पवित्र वचन वर्णन सुनिये। वहाँ सबसे बड़ा दोष यह है कि दूसरोंकी बोलनेकी भी आवश्यकता है। अन्नदान संसार-सागरसे अपनेसे बढ़ी हुई सम्पत्ति देखकर मनमें असंतोष होता है तारनेवाला, हितसाधक तथा सुख-सम्पत्तिका हेतु है। तथा स्वर्गीय सुखमें आसक्त चित्तवाले प्राणियोंका [पुण्य यदि शुद्ध चित्तसे श्रद्धापूर्वक सुपात्र व्यक्तिको एक बार क्षीण होते ही] सहसा वहाँसे पतन हो जाता है। यहाँ जो भी अनका दान दिया जाय तो मनुष्य सदा ही उसका शुभ कर्म किया जाता है, उसका फल वहीं (स्वर्गमें) उत्तम फल भोगता रहता है। अपने भोजनमेंसे मुट्ठीभर भोगा जाता है। राजन् ! यह कर्मभूमि है और स्वर्गको अन्न 'अप्रयास के रूपमें अवश्य दान करना चाहिये। भोगभूमि माना गया है। उस दानका बहुत बड़ा फल है, उसे अक्षय बताया गया सुबाहुने कहा-ब्रह्मन् ! स्वर्गके अतिरिक्त जो है। जो प्रतिदिन सेरभर या मुट्ठीभर भी अन्न न दे सके, दोषरहित सनातन लोक हों, उनका मुझसे वर्णन कीजिये। वह मनुष्य पर्व आनेपर आस्तिकता, श्रद्धा तथा भक्तिके जैमिनि बोले-राजन् ! ब्रह्मलोकसे ऊपर साथ एक ब्राह्मणको भोजन करा दे। राजन् ! जो भगवान् श्रीविष्णुका परम पद है। वह शुभ, सनातन एवं प्रतिदिन ब्राह्मणको अन्न देते और जलसहित मिष्टान ज्योतिर्मय धाम है। उसीको परब्रह्म कहा गया है। भोजन कराते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। वेदोंके विषयासक्त मूढ़ पुरुष वहाँ नहीं जा सकते। दम्भ, लोभ, पारगामी ऋषि अत्रको हो प्राणस्वरूप बतलाते है; भय, क्रोध, द्रोह और द्वेषसे आक्रान्त मनुष्योंका वहाँ अन्नकी उत्पत्ति अमृतसे हुई है। महाराज ! जिसने प्रवेश नहीं हो सकता । जो ममता और अहंकारसे रहित, किसीको अन्नका दान किया है, उसने मानो प्राणदान निर्द्वन्द्र, जितेन्द्रिय तथा ध्यान-योगपरायण हैं, वे साधु दिया है। इसलिये आप यल करके अन्नका दान दीजिये। पुरुष ही उस धाममें प्रवेश करते हैं।
सुबाहुने कहा-द्विजश्रेष्ठ ! अब मुझसे स्वर्गके सुबाहुने कहा-महाभाग ! मैं स्वर्गमें नहीं गुणोंका वर्णन कीजिये।
जाऊँगा, मुझे उसकी इच्छा नहीं है। जिस स्वर्गसे एक जैमिनि बोले-राजन् ! स्वर्गमे नन्दनवन आदि दिन नीचे गिरना पड़ता है, उसकी प्राप्ति करानेवाला कर्म अनेकों दिव्य उद्यान हैं, जो अत्यन्त मनोहर, पवित्र और ही मैं नहीं करूंगा। मैं तो ध्यानयोगके द्वारा देवेश्वर समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। इनके सिवा वहाँ लक्ष्मीपतिका पूजन करूँगा और दाह तथा प्रलयसे रहित परम सुन्दर दिव्य विमान भी हैं। पुण्यात्मा मनुष्य उन विष्णु-लोकमें जाऊँगा। विमानोंपर सुखपूर्वक विचरण किया करते हैं। वहाँ जैमिनि बोले-राजन् ! तुम्हारा कहना ठीक है, नास्तिक नहीं जाते; चोर, असंयमी, निर्दय, चुगलखोर, तुमने सबके कल्याणकी बात कही है। वास्तवमें राजा कृतन और अभिमानी भी नहीं जाने पाते। जो सत्यके दानशील हुआ करते हैं। वे बड़े-बड़े यशोद्वारा भगवान्
* श्रद्धा धर्मसुता देवी पावनी विश्वभाविनी ॥ - सावित्री प्रसवित्री च संसारार्णवतारिणी । श्रद्धया ध्यायते धमों विद्भिश्चात्मवादिभिः॥ निष्किचनास्तु मुनयः श्रद्धावन्तो दिवं गताः ।
(९४ । ४४-४६)