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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
इस प्रकार जो परमात्माके सर्वमय स्वरूपका ध्यान करता है, वह अमृतके समान सुखदायी और आकार रहित परम पद (मोक्ष) को प्राप्त होता है। *
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अब परमात्मा ध्यानका दूसरा रूप साकार ध्यान बतलाता हूँ । मूर्तिमान् आकारके चिन्तनको साकार ध्यान कहते हैं तथा जो निरामय तत्त्वका चिन्तन है, उसे निराकार ध्यान कहा गया है। यह समस्त ब्रह्माण्ड, जिसकी कहीं तुलना नहीं है, भगवान्की वासनासे ही वासित हैभगवान् में ही इसका निवास है; इसीलिये उन्हें 'वासुदेव' कहते हैं । वर्षाके लिये उन्मुख मेघका जैसा वर्ण होता है, वैसा ही उनका भी वर्ण है। वे सूर्यके समान तेजस्वी, चतुर्भुज और देवताओंके स्वामी हैं। उनके दाहिने हाथोंमेंसे एक सुवर्ण और रत्नोंसे विभूषित शङ्ख शोभा पा रहा है। बायें हाथोंमेंसे एकमें चक्र प्रतिष्ठित है, जिसकी तेजोमयी आकृति सूर्यमण्डलके समान है। कौमोदकी गदा, जो बड़े-बड़े असुरोंका विनाश करनेवाली है, उन परमात्माके दूसरे बायें हाथमें सुशोभित है तथा उनके दूसरे दाहिने हाथमें सुगन्धपूर्ण महान् पद्म शोभा पा रहा है। इस प्रकार आयुधोसहित भगवान् कमलापतिका ध्यान करना चाहिये। शङ्खके समान ग्रीवा, गोल-गोल मुख और पद्मपत्रके समान बड़ी-बड़ी आँखें अत्यन्त मनोहर जान
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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पड़ती है। रलोके समान चमकीले दाँतोंसे भगवान् हृषीकेशकी बड़ी शोभा हो रही है। उनके घुँघराले बाल हैं, बिम्बाफलके समान लाल-लाल ओठ हैं तथा मस्तकपर धारण किये हुए किरीटसे कमल नयन श्रीहरि अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं। विशाल रूप, सुन्दर नेत्र तथा कौस्तुभमणिसे उनको कान्ति बहुत बढ़ गयी है। सूर्यके समान तेजसे प्रकाशित होनेवाले कुण्डल और पुण्यमय श्रीवत्स चिह्नसे श्रीहरि सदा देदीप्यमान दिखायी देते हैं। उनके श्यामविग्रहपर बाजूबन्द, कंगन और मोतियोंके हार नक्षत्रोंके समान छबि पा रहे हैं। इनसे सुशोभित भगवान् विजय विजयी पुरुषोंमें सर्वश्रेष्ठ जान पड़ते हैं। सोनेके समान रंगवाले पीताम्बरसे गोविन्दकी सुषमा और भी बढ़ गयी है। रत्नजटित मुंदरियोंसे सुशोभित अँगुलियोंके कारण भगवान् बड़े सुन्दर प्रतीत होते हैं। सब प्रकारके आयुधों से पूर्ण और दिव्य आभूषणोंसे विभूषित श्रीहरि गरुड़की पीठपर विराजमान हैं। वे इस विश्वके स्रष्टा और जगत्के स्वामी हैं जो मनुष्य इस प्रकार भगवान्की मनोहर झाँकीका प्रतिदिन अनन्य चित्तसे ध्यान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो अन्तमें भगवान् श्रीविष्णुके लोकको जाता है। बेटा! इस जगदीश्वरके ध्यानका यह सारा प्रकार मैंने तुम्हें बता दिया।
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परमार्थपरायणाः। यं पश्यन्ति यतीन्द्रास्ते सर्वज्ञ सर्वदर्शकम् ॥ परिगच्छति । सबै गृह्णाति त्रैलोक्यं स्थावरं जङ्गमं सुत ॥
योगयुक्ता महात्मानः हस्तपादादिहीनश्च सर्वत्र मुखनासाविहीनस्तु घाति भुझे हि पुत्रक । अकर्णः शृणुते सर्व सर्वसाक्षी जगत्पतिः ॥ अरूपो रूपसम्पन्नः पञ्चवर्गसमन्वितः । सर्वलोकस्य यः प्राणः पूजितः सचराचरैः ॥ अजिह्नो वदते सर्व वेदशास्त्रानुगं सुत। अत्वचः स्पर्शमेवापि सर्वेषामेव जायते ॥ सदानन्दो विरक्तात्मा एकरूपो निराश्रयः। निर्जरो निर्ममो व्यापी सगुणो निर्गुणोऽमलः ॥
८६ । ७७)
अवश्यः सर्ववश्यात्मा सर्वदः सर्ववित्तमः । तस्य ध्याता न चैवास्ति स वै सर्वमयो विभुः ॥ ( ८६ । ६९-७६) * एवं सर्वमयं ध्यानं पश्यते यो महात्मनः। स याति परमं स्थानममूर्तममृतोपमम् ॥ + द्वितीयं तु प्रवक्ष्यामि ह्यस्य ध्यानं महात्मनः। मूर्ताकारं तु साकारं निराकारं निरामयम् ॥ ब्रह्माण्डं सर्वमतुलं वासितं यस्य वासनात्। स तस्माद् वासुदेवेति उच्यते मम नन्दन ॥ वर्षमाणस्य मेघस्य यद्वर्षं तस्य तद्भवेत् सूर्यतेजःप्रतीकाशं चतुर्बाहुं सुरेश्वरम् ॥ दक्षिणे शोभते शङ्खो हेमरत्नविभूषितः । सूर्यबिम्बासमाकारं चक्रं पद्मप्रतिष्ठितम् ॥ कौमोदकीं गदा तस्य महासुरविनाशिनी। वामे च शोभते वत्स करे तस्य महात्मनः । महापद्मं तु गन्धाढ्यं तस्य दक्षिणहस्तगम् । शोभमानं सदा ध्यायेत् सायुधं कमलाप्रियम् ॥ कम्बुग्रीवं वृत्तमास्यं पद्मपत्रनिभेक्षणम् । राजमानं हथोकेशं दशनैः रत्नसन्निभैः ॥
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