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भूमिखण्ड ]
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• ययातिका प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
माँगो मैं उसे निस्सन्देह पूर्ण करूंगा।'
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राजा बोले- मधुसूदन ! जगत्पते! देवेश्वर ! यदि आप मुझपर सन्तुष्ट हैं तो सदाके लिये मुझे अपना दास बना लीजिये ।
भगवान् श्रीविष्णुने कहा- महाभाग ! ऐसा ही होगा। तुम मेरे भक्त हो, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। राजन् ! तुम अपनी पत्नीके साथ सदा मेरे लोकमें निवास करो।
भगवान्की ऐसी आज्ञा पाकर उनकी कृपासे महाराज ययाति परम प्रकाशमान विष्णुलोकमें निवास करने लगे ।
सुकर्मा कहते हैं-पिप्पलजी ! यह सम्पूर्ण पापनाशक चरित्र मैंने आपको सुना दिया। संसारमें राजा ययातिका दिव्य एवं शुभ जीवनचरित्र परम कल्याण दायक तथा पितृभक्त पुत्रोंका उद्धार करनेवाला है। पिताकी सेवाके प्रभावसे पूरुको राज्य प्राप्त हुआ। पिता-माताके समान अभीष्ट फल देनेवाला दूसरा कोई नहीं है। जो पुत्र माताके बुलानेपर हर्षमें भरकर उसकी ओर जाता है, उसे गङ्गास्नानका फल मिलता है। जो माता और पिताके चरण पखारता है, वह महायशस्वी पुत्र उन दोनोंकी कृपासे समस्त तीर्थोक सेवनका फल भोगता है। उनके शरीरको दबाकर व्यथा दूर करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है जो भोजन और वस्त्र देकर माता-पिताका पालन करता है, उसे पृथ्वीदानका पुण्य प्राप्त होता है। गङ्गा और माता सर्वतीर्थमयी मानी गयी है,
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इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जैसे जगत्में समुद्र परम पुण्यमय एवं प्रतिष्ठित माना गया है, उसी प्रकार इस संसारमें पिता-माताका भी महत्वपूर्ण स्थान है। ऐसा पौराणिक विद्वानोंका कथन है। जो पुत्र माता-पिताको कटुवचन सुनाता और कोसता है, वह बहुत दुःख देनेवाले नरकमें पड़ता है। जो गृहस्थ होकर भी बूढ़े माता-पिताका पालन नहीं करता, वह पुत्र नरकमें पड़ता और भारी यातना भोगता है। जो दुर्बुद्धि एवं पापाचारी पुरुष पिताकी निन्दा करता है, उसके उस पापका प्रायश्चित्त प्राचीन विद्वानोंको भी कभी दृष्टिगोचर नहीं हुआ है। *
पितृमातृसमे नास्ति अभीष्टफलदायकम् ।।
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समाहूतो यदा पुत्रः प्रयाति मातरं प्रति यो याति हर्यसंयुक्तो गङ्गास्त्रानफलं लभेत् ॥ पादप्रक्षालन यश्च कुरुते च महायशाः । सर्वतीर्थफलं भुङ्गे प्रसादादुभयोः सुतः ॥ अङ्गसंवाहनासाथ अश्वमेधफलं लभेत्। भोजनाच्छादनश्चैव गुरु च परिपोषयेत् ॥ पृथ्वीदानस्य यत्पुण्यं तत्पुण्यं तस्य जायते सर्वतीर्थमयी गङ्गा तथा माता न संशयः ॥ बहुपुण्यमयः सिन्धुर्यथा लोके प्रतिष्ठितः । अस्मिन्नेव पिता तद्वत् पुराणाः कवयो विदुः ॥ शंसते क्रोशते यस्तु पितरं मातरं पुनः स पुत्रो नरकं याति बहुदुःखप्रदायकम् ॥ मातरं पितरं वृद्ध गृहस्थो यो न पोषयेत्। स पुत्रो नरकं याति वेदनां प्राप्नुयाद् ध्रुवम् ॥ कुत्सते पापकर्ता यो गुरुं पुत्रः सुदुर्मतिः। निष्कृतिस्तस्य नोद्दिष्टा पुराणैः कविभिः कदा || (८४ ॥५-१३)
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+ एवं मत्वा त्वहं विप्र पूजयामि दिने दिने। मातरं पितरं भक्त्या पादसंवाहनादिभिः ॥ कृत्याकृत्यं वदेचैव समाहूय गुरुर्मम । तत्करोम्यविचारेण शक्त्या स्वस्य च पिप्पल ॥ तेन मे परमं ज्ञानं संजातं गतिदायकम्। एतयोश्च प्रसादेन संसारे परिवर्तते ॥
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विप्रवर! यही सब सोचकर मैं प्रतिदिन मातापिताकी भक्तिपूर्वक पूजा करता हूँ और चरण दबाने आदिकी सेवामें लगा रहता हूँ। मेरे पिता मुझे बुलाकर जो कुछ भी आज्ञा देते हैं, उसे मैं अपनी शक्तिके अनुसार बिना विचारे पूर्ण करता हूँ। इससे मुझे सद्गति प्रदान करनेवाला उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ है। पिता-माताकी कृपासे संसारमें तीनों कालोंका ज्ञान सुलभ हो जाता है। पृथ्वीपर रहनेवाले जो मनुष्य माता-पिताकी भक्ति करते हैं, उन्हें यह ज्ञान प्राप्त होता है मैं यहीं रहकर स्वर्गलोकतककी बातें जानता हूँ। विद्याधर श्रेष्ठ ! आप भी जाइये और भगवत्स्वरूप माता-पिताकी आराधना कीजिये देखिये इन माता-पिताके प्रसादसे ही मुझे ऐसा ज्ञान मिला है।
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भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं— राजन् ! विप्रवर
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