________________
૨૮૮
• अयस्व इवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
मातलि बोले-राजन्! नारकी पुरुषोंके जलके नीचे स्थित हो धीरे-धीरे जठराग्निको प्रज्वलित अधर्ममात्रसे एक ही क्षणमें भूतोंके द्वारा नूतन शरीरका करता है। वायुसे उद्दीप्त की हुई अनि जलको अधिक निर्माण हो जाता है। इसी प्रकार एकमात्र धर्मसे ही गर्म कर देती है। उसकी गर्मकि कारण अत्र सब ओरसे देवत्वकी प्राप्ति करानेवाले दिव्य शरीरको तत्काल उत्पत्ति भलीभांति पच जाता है। पचा हुआ अत्र कीट और हो जाती है। उसका आविर्भाव भूतोंके सारतत्त्वसे होता रस-इन दो भागोंमें विभक्त होता है। इनमें कीट है। कोंक मेलसे जो शरीर उत्पन्न होता है, उसे रूपके मलरूपसे बारह छिद्रोंद्वारा शरीरके बाहर निकलता है। परिमाणसे चार प्रकारका समझना चाहिये। [उद्भिज्ज, दो कान, दो नेत्र, दो नासा-छिद्र, जिला, दाँत, ओठ, स्वेदज, अण्डज और जरायुज-ये ही चार प्रकारके लिङ्ग, गुदा और रोमकूप-ये ही मल निकलनेके बारह शरीर हैं।] स्थावरोको उद्भिज्ज कहते हैं। उन्हें तृण, मार्ग हैं। इनके द्वारा कफ, पसीने और मल-मूत्र आदिके गुल्म और लता आदिके रूपमें जानना चाहिये। कृमि, रूपमें शरीरका मैल निकलता है। हृदयकमलमें शरीरकी कीट और पतङ्ग आदि प्राणी स्वेदज कहलाते हैं। समस्त सब नाड़ियाँ आबद्ध हैं। उनके मुखमें प्राण अत्रका पक्षी, नाके और मछली आदि जीव अण्डज है। मनुष्यों सूक्ष्म रस डाला करता है। वह बारम्बार उस रससे और चौपायोंको जरायुज जानना चाहिये। नाड़ियोंको भरता रहता है तथा रससे भरी हुई नाड़ियाँ
भूमिके पानीसे सींचे जानेपर बोये हुए अन्नमें सम्पूर्ण देहको तृप्त करती रहती है। उसकी गर्मी चली जाती है। फिर वायुसे संयुक्त होनेपर नाड़ियोंके मध्यमें स्थित हुआ रस शरीरकी गर्मीसे क्षेत्रमें बीज जमने लगता है। पहले तपे हुए बीज जब पकने लगता है। उस रसके जब दो पाक हो जाते हैं, पुनः जलसे सींचे जाते हैं, तब गर्मकि कारण उनमें मृदुता तब उससे त्वचा, मांस, हड्डी, मज्जा, मेद और रुधिर आ जाती है। फिर वे जड़के रूप में बदल जाते हैं। उस आदि उत्पन्न होते हैं। रक्तसे रोम और मांस, मांससे केश मूलसे अङ्करकी उत्पत्ति होती है। अङ्करसे पते निकलते और सायु, सायुसे मज्जा और हड्डी तथा मज्जा और हैं, पत्तेसे तना, तनेसे काण्ड, काण्डसे प्रभव, प्रभवसे हड्डीसे वसाको उत्पत्ति होती है। मज्जासे शरीरकी दूध और दूधसे तण्डुल उत्पन्न होता है। तण्डुलके पक उत्पत्तिका कारणभूत वीर्य बनता है। इस प्रकार अनके जानेपर अनाजकी खेती तैयार हुई समझी जाती है। बारह परिणाम बताये गये हैं।* जब ऋतुकालमें अनाजोंमें शालि (अगहनी धान)से लेकर जौतक दस दोषरहित वीर्य स्त्रीकी योनिमें स्थित होता है, उस समय अत्र श्रेष्ठ माने गये हैं। उनमें फलकी प्रधानता होती है। वह वायुसे प्रेरित हो रजके साथ मिलकर एक हो जाता शेष अन्न क्षुद्र बताये गये हैं। भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य, है। वीर्य-स्थापनके समय कारण-शरीरयुक्त जीव अपने चोष्य और खाद्य-ये अत्रके छ: भेद हैं तथा मधुर कर्मोंसे प्रेरित होकर योनिमें प्रवेश करता है। आदि छः प्रकारके रस हैं। देहधारी उस अन्नको पिण्डके वीर्य और रज दोनों एकत्र होकर एक ही दिनमें समान कौर या ग्रास बनाकर खाते हैं। वह अन्न शरीरके कललके आकारमें परिणत हो जाते हैं, फिर पाँच रातमें भीतर उदरमें पहुँचकर समस्त प्राणोंको क्रमशः स्थिर उनका बुबुद बन जाता है। तत्पश्चात् एक महीनेमें करता है। खाये हुए अपक्व भोजनको वायु दो भागोंमें ग्रीवा, मस्तक, कंधे, रीड़की हड्डी तथा उदर-ये पाँच बाँट देती है। अन्नके भीतर प्रवेश करके उसे पचाती अङ्ग उत्पन्न होते हैं; फिर दो महीनेमे हाथ, पैर, पसली, और पृथक्-पृथक् गुणोंसे युक्त करती है। अग्निके ऊपर कमर और पूरा शरीर-ये सभी क्रमशः सम्पन्न होते हैं। जल और जलके ऊपर अन्नको स्थापित करके प्राण स्वयं तीन महीने बीतते-बीतते सैकड़ों अङ्करसंधियाँ प्रकट हो
• अश्के बारह परिणाम ये है-पाक, रस, मल, रक्त, रोम, मांस, केश, स्नायु, मज्जा, हड्डी, वसा और वीर्य ।