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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
कभी हाथी या दूसरे जन्तु उन्हें समूल नष्ट कर डालते दुःखोंसे ग्रस्त है; इसलिये विद्वान् पुरुषको सबका त्याग हैं। कभी वे दावानलकी आँचमें झुलसते हैं तो कभी कर देना चाहिये। जैसे मनुष्य इस कंधेका भार उस पाला पड़नेसे कष्ट भोगते हैं। पशु-योनिमें पड़े हुए कंधेपर लेकर अपनेको विश्राम मिला समझता है, उसी जीवोंकी कसाइयोंद्वारा हत्या होती है, उन्हें डंडोंसे पीटा प्रकार संसारके सब लोग दुःखसे ही दुःखको शान्त जाता है, नाक छेदकर त्रास दिया जाता है, चाबुकोंसे करनेकी चेष्टा कर रहे हैं। अतः सबको दुःखसे व्याकुल मारा जाता है, बेत या काठ आदिकी बेड़ियोंसे अथवा जानकर विचारवान् पुरुषको परम निर्वेद धारण करना अंकुशके द्वारा उनके शरीरको बन्धनमें डाला जाता है चाहिये, निवेदसे परम वैराग्य होता है और उससे ज्ञान । तथा बलपूर्वक मनमाने स्थानमें ले जाया जाता और ज्ञानसे परमात्माको जानकर मनुष्य कल्याणमयी मुक्तिको बाँधा जाता है तथा उन्हें अपने टोलोंसे अलग किया प्राप्त होता है। फिर वह समस्त दुःखोंसे मुक्त होकर सदा जाता है। इस प्रकार पशुओंके शरीरको भी अनेक सुखी, सर्वज्ञ और कृतार्थ हो जाता है। ऐसे ही पुरुषको प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं।
मुक्त कहते हैं। राजन् ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने सब देवताओंसे लेकर सम्पूर्ण चराचर जगत् पूर्वोक्त बातें तुम्हें बता दीं।
पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
ययाति बोले-मातले ! मर्त्यलोकके मानव बड़े गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रको उचित है भयानक पाप करते हैं; उन्हें उन कर्मोका क्या फल कि वह प्रत्येक पुण्यपर्वके अवसरपर निर्धन ब्राह्मणकी मिलता है ? इस समय यही बात बताओ। पूजा करें तथा जहाँतक हो सके, उसे धनकी प्राप्ति
मातलिने कहा-राजन् ! जो लोग वेदोंकी निन्दा कराये। श्राद्धके समय निमन्त्रित ब्राह्मणके अतिरिक्त यदि और वेदोक्त सदाचारकी गर्हणा करते हैं तथा जो अपने दूसरा कोई ब्राह्मण आ जाय तो उन दोनोंकी ही भोजन, कुलके आचारका त्याग करके दूसरोंका आचार ग्रहण वस्त्र, ताम्बूल और दक्षिणाके द्वारा पूजा करनी चाहिये; करते हैं, जो सब साधुओंको पीड़ा देते हैं, वे सब पातकी इससे श्राद्धकर्ताके पितरोंको बड़ा हर्ष होता है। यदि हैं। तत्त्ववेत्ता पुरुषोंने इन दुष्कर्मोको पातक नाम दिया श्राद्धकर्ता धनहीन हो तो वह एककी ही पूजा कर सकता है। जो माता-पिताकी निन्दा करते, बहिनको सदा मारते है। जो श्राद्धमें ब्राह्मणको भोजन कराकर आदरपूर्वक
और उसकी गर्हणा करते हैं, उनका यह कार्य निश्चय ही दक्षिणा नहीं देता, उसे गोहत्या आदिके समान पाप पातक है। जो श्राद्धकाल आनेपर भी काम, क्रोध लगता है। महाराज ! व्यतीपात और वैधृति योग अथवा भयसे, पाँच कोसके भीतर रहनेवाले दामाद, आनेपर अथवा अमावास्या तिथिको या पिताकी क्षयाहभांजे तथा बहिनको नहीं बुलाता और सदा दूसरोंको ही तिथि प्राप्त होनेपर अपराहकालमें ब्राह्मण आदि वर्णोको भोजन कराता है, उसके श्राद्धमें पितर अन्न ग्रहण नहीं अवश्य श्राद्ध करना चाहिये। करते, उसमें विघ्न पड़ जाता है। दामाद आदिकी उपेक्षा विज्ञ पुरुषको उचित है कि वह अपरिचित श्राद्धकर्ता पुरुषके लिये पितृहत्याके समान है, उसे बहुत ब्राह्मणको श्राद्धमें निमन्त्रित न करे। अपरिचितोंमें भी बड़ा पातक माना गया है। इसी प्रकार यदि दान देते यदि कोई वेद-वेदाङ्गोंका पारगामी विद्वान् हो तो उस समय बहुत-से ब्राह्मण आ जायें तथा उनमेंसे एकको तो ब्राह्मणको श्राद्धमें निमन्वित करना और दान देना दान दिया जाय और दूसरोको न दिया जाय तो यह उचित है। राजन् ! निमन्त्रित ब्राह्मणका अपूर्व दानके फलको नष्ट करनेवाला बहुत बड़ा पातक माना आतिथ्य-सत्कार करना चाहिये । जो पापी इसके विपरीत