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• अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
हजार पल तथा रक्त सौ पल होता है और मूत्रका कोई वैराग्य नहीं होता। अहो ! मोहका कैसा माहात्म्य है, नियत माप नहीं है।
जिससे सारा जगत् मोहित हो रहा है। अपने शरीरके राजन् ! आत्मा परम शुद्ध है और उसका यह दोषोंको देखकर और सँघकर भी वह उससे विरक्त नहीं देहरूपी घर, जो कोंक बन्धनसे तैयार किया गया है, होता। जो मनुष्य अपने देहकी अपवित्र गन्धसे घृणा नितान्त अशुद्ध है। इस बातको सदा ही याद रखना करता है, उसे वैराग्यके लिये और क्या उपदेश दिया जा चाहिये। वीर्य और रजका संयोग होनेपर ही किसी भी सकता है। सारा संसार पवित्र है, केवल शरीर ही योनिमें देहकी उत्पत्ति होती है तथा यह हमेशा पेशाब अत्यन्त अपवित्र है; क्योंकि जन्मकालमें इस शरीरके और पाखानेसे भरा रहता है; इसलिये इसे अपवित्र माना अवयवोंका स्पर्श करनेसे शुद्ध मनुष्य भी अशुद्ध हो गया है। जैसे बड़ा बाहरसे चिकना होनेपर भी यदि जाता है। अपवित्र वस्तुको गन्ध और लेपको दूर करनेके विष्ठासे भरा हो तो वह अपवित्र ही समझा जाता है, उसी लिये शरीरको नहलाने-धोने आदिका विधान है। गन्ध प्रकार यह देह ऊपरसे पञ्चभूतोंद्वारा शुद्ध किया जानेपर और लेपकी निवृत्ति हो जानेके पश्चात् भावशुद्धिसे भी भीतरकी गंदगीके कारण अपवित्र ही माना गया है। वस्तुतः मनुष्य शुद्ध होता है। जिसमें पहुँचकर पञ्चगव्य और हविष्य आदि अत्यन्त जिसका भीतरी भाव दूषित है, वह यदि आगमें पवित्र पदार्थ भी तत्काल अपवित्र हो जाते हैं, उस प्रवेश कर जाय तो भी न तो उसे स्वर्ग मिलता है और शरीरसे बढ़कर अशुद्ध दूसरा क्या हो सकता है।* न मोक्षकी ही प्राप्ति होती है उसे सदा देहके बन्धनमें ही जिसके द्वारोंसे निरन्तर क्षण-क्षणमें कफ-मूत्र आदि जकड़े रहना पड़ता है। भावकी शुद्धि ही सबसे बड़ी अपवित्र वस्तुएँ बहती रहती हैं, उस अत्यन्त अपावन पवित्रता है और वही प्रत्येक कार्य में श्रेष्ठताका हेतु है। शरीरको कैसे शुद्ध किया जा सकता है। शरीरके पत्नी और पुत्री-दोनोंका ही आलिङ्गन किया जाता है; छिद्रोंका स्पर्शमात्र कर लेनेपर हाथको जलसे शुद्ध किया किन्तु पत्नीके आलिङ्गनमें दूसरा भाव होता है और जाता है, तथापि मनुष्य अशुद्ध ही बने रहते हैं। किन्तु पुत्रीके आलिङ्गनमें दूसरा । भिन्न-भिन्न वस्तुओंके प्रति फिर भी उन्हें देहसे वैराग्य नहीं होता। जैसे जन्मसे ही मनको वृत्ति में भी भेद हो जाता है। नारी अपने पतिका काले रंगकी ऊन धोनेसे कभी सफेद नहीं होती, उसी और भावसे चिन्तन करती है और पुत्रका और भावसे।x प्रकार यह शरीर धोनेसे भी पवित्र नहीं हो सकता। तुम यत्नपूर्वक अपने मनको शुद्ध करो, दूसरी-दूसरी मनुष्य अपने शरीरके मलको अपनी आँखों देखता है, बाह्य शुद्धियोंसे क्या लेना है। जो भावसे पवित्र है, उसको दुर्गन्धका अनुभव करता है और उससे बचनेके जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, वही स्वर्ग तथा लिये नाक भी दबाता है किन्तु फिर भी उसके मनमें मोक्षको प्राप्त करता है। उत्तम वैराग्यरूपी मिट्टी तथा
*यं प्राप्यातिपवित्राणि पञ्चगव्यं हवींषि च । अशुचित्वं क्षणाधान्ति कोऽन्योऽस्मादशुचिस्ततः ।। (६६।६९) * स्रोर्तासि यस्य सततं प्रवहन्ति क्षणे क्षणे । कफमूत्राद्यत्यशुचिः स देहः शुध्यते कथम् ॥ (६६।७३) + स्पृष्टा च देहस्रोतांसि मृदादिभिः शोध्यते करः । तथाप्यशुचिभाजश्च न विरज्यन्ति ते नराः ॥ (६६/७५) इजिप्रापि स्वदुर्गन्ध पश्यन्नपि मलं स्वकम् ।न विरज्येत लोकोऽय पीडयनपि नासिकाम्॥
अहो मोहस्य माहात्य येन व्यामोहितं जगत् । जिमन् पश्यन् स्वकान् दोषान् कायस्य न विरज्यते ॥ स्वदेहाशुचिगभेन यो विरज्येत मानवः । विरागकारणं तस्य किमन्यदुपदिश्यते ।।(६६॥ ७८-८०) ४ अन्तर्भावप्रदुष्टस्य विशतोऽपि हुताशनम् ।न वर्गों नापवर्गश देहनिर्बन्धन परम्॥ भावशुद्धिः परं शौच प्रमाण सर्वकर्मसु । अन्यथाऽऽलियते कान्ता भावेन दुहितान्यथा ॥ मनसो भिद्यते वृत्तिभित्रपि च वस्तुषु । अन्यथैव ततः पुत्रं भावयत्यन्यथा पतिम् ।।(६६।८५-८७)