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- अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको
भगवान के दर्शन तथा भगवानकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति भीष्पजी बोले-ब्राह्मन्! आपने भगवान् कुछ वस्तु है, वह सब पुरुषोत्तम नारायण ही हैं। श्रीरामचन्द्रजीकी महिमाका वर्णन किया। अब पुनः उन्हीं कुरुनन्दन ! चार हजार दिव्य वर्षाका सत्ययुग श्रीविष्णुभगवान्के माहात्म्यका प्रतिपादन कीजिये। कहा गया है। उसकी सन्ध्या और सन्ध्यांश आठ सौ [उनकी नाभिसे] वह सुवर्णमय कमल कैसे उत्पन्न वर्षीक माने गये हैं। उस युगमें धर्म अपने चारों चरणोंसे हुआ, प्राचीन कालमें वैष्णवी सृष्टि कमलके भीतर कैसे मौजूद रहता है और अधर्म एक ही पैरसे स्थित होता है। हुई? धर्मात्मन् ! मैं श्रद्धापूर्वक सुननेके लिये बैठा हूँ, उस समय सब मनुष्य स्वधर्मपरायण और शान्त होते हैं। अतः आप मुझे भगवान् नारायणका यश अवश्य सुनायें। सत्ययुगमें सत्य, पवित्रता और धर्मकी वृद्धि होती है।
पुलस्त्यजीने कहा-कुरुश्रेष्ठ ! तुम उत्तम कुलमें श्रेष्ठ पुरुष जिसका आचरण करते हैं, वही कर्म उस उत्पन्न हुए हो; अतः तुम्हारे हृदयमें जो भगवान् समय सबके द्वारा किया और कराया जाता है। राजन् ! श्रीनारायणके सुयशको सुननेकी उत्कण्ठा हुई है, यह सत्ययुगमें जन्मतः धार्मिक अथवा नीच कुलमें उत्पन्न उचित ही है। पुराणोंमें जैसा वर्णन किया गया है, सभी मनुष्योंका ऐसा ही धर्मानुकूल बर्ताव होता है। देवताओंके मुखसे जैसा सुना है तथा द्वैपायन व्यासजीने त्रेतायुगका मान तीन हजार दिव्य वर्ष बतलाया जाता है। अपनी तपस्यासे देखकर जैसा बतलाया है, वह अपनी उसकी दोनों सन्ध्याएँ छः सौ वर्षोंकी होती हैं। उस समय बुद्धिके अनुसार मैं तुमसे कहूँगा। यह विश्व परम पुरुष धर्म तीन चरणोंसे और अधर्म दो पादोंसे स्थित रहता है। श्रीनारायणका स्वरूप है, इसे मेरे पिता ब्रह्माजी भी उस युगमें सत्य एवं शौचका पालन तथा यज्ञ-यागादिका ठीक-ठीक नहीं जानते, फिर दूसरा कौन जान सकता है। अनुष्ठान होता है। त्रेतामें चारों वर्णोक लोग केवल वे भगवान् नारायण ही महर्षियोंके गुप्त रहस्य, सब कुछ लोभके कारण विकारको प्राप्त होते हैं। वर्णधर्ममें विकार देखने और जाननेवालोंके परमतत्त्व, अध्यात्मवेत्ताओंके आनेसे आश्रमोंमें भी दुर्बलता आ जाती है। यह अध्यात्म, अधिदैव तथा अधिभूत है। वे ही परमर्षियोंके त्रेतायुगकी देवनिर्मित विचित्र गति है। द्वापर दो हजार परब्रह्म है। वेदोंमें प्रतिपादित यज्ञ उन्हींका स्वरूप है। दिव्य वर्षोंका होता है। इसकी सन्ध्याओंका मान चार सौ विद्वान् पुरुष उन्हींको तप मानते हैं। जो कर्ता, कारक, वर्षका बताया जाता है। उस समयके प्राणी रजोगुणसे मन, बुद्धि, क्षेत्रज्ञ, प्रणव, पुरुष, शासन करनेवाले और अभिभूत होनेके कारण अधिक अर्थ-परायण, शठ, अद्वितीय समझे जाते हैं, जो पाँच प्रकारके प्राण (प्राण, दूसरोंकी जीविकाका नाश करनेवाले तथा क्षुद्र होते है। अपान, व्यान, उदान और समान), ध्रुव एवं अक्षर-तत्त्व द्वापरमें धर्म दो चरणोंसे और अधर्म तीन पादोंसे स्थित हैं, वे ही परमात्मा नाना प्रकारके भावोंद्वारा प्रतिपादित रहता है। दोनों सन्ध्याओंसहित कलियुगका मान एक होते हैं। वे ही परब्रह्म है तथा वे ही भगवान् सबकी हजार दो सौ दिव्य वर्ष है। यह क्रूरताका युग है। इसमें सृष्टि और संहार करते हैं। उन्हीं आदि पुरुषका हमलोग अधर्म अपने चारों पादोंसे और धर्म एक ही चरणसे यजन करते हैं। जितनी कथाएँ हैं, जो-जो श्रुतियाँ हैं, स्थित रहता है। उस समय मनुष्य कामी, तमोगुणी और जिसे धर्म कहते हैं, जो धर्मपरायण पुरुष हैं और जो नीच होते हैं। इस युगमें प्रायः कोई साधक, साधु और विश्व तथा विश्वके स्वामी हैं, वे सब भगवान् नारायणके सत्यवादी नहीं होता। लोग नास्तिक होते हैं, ब्राह्मणोंके ही स्वरूप माने गये हैं। जो सत्य है, जो मिथ्या है, जो प्रति उनकी भक्ति नहीं होती। सब मनुष्य अहङ्कारके आदि, मध्य और अन्तमें है, जो सीमारहित भविष्य है, वशीभूत होते हैं। उनमें परस्पर प्रेम प्रायः बहुत ही कम जो कोई चर-अचर प्राणी हैं तथा इनके अतिरिक्त भी जो होता है। कलियुगमें ब्राह्मणोंके आचरण प्रायः शूद्रोंके-से