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सृष्टिखण्ड ]
. पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पञ्चमहायज्ञ .
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यों कहकर तुलाधार खरीद-बिक्रीम लग गया। भीतर भगवान् श्रीविष्णु विराजमान रहते हैं। सत्य और नरोत्तमने विप्ररूपधारी भगवानसे पूछा-'तात ! अब सरलता आदि गुणोंमें उसकी समानता करनेवाला इस मैं तुलाधारके कथनानुसार सज्जन अद्रोहकके पास संसारमें दूसरा कोई नहीं होता। वह साक्षात् धर्मका जाऊँगा। परन्तु मैं उनका घर नहीं जानता।' स्वरूप होता है और वही इस जगत्को धारण करता है।
श्रीभगवान् बोले-चलो, मैं तुम्हारे साथ उनके ब्राह्मणने कहा-विप्रवर ! आपकी कृपासे मुझे घर चलूँगा।
तुलाधारके सर्वज्ञ होनेका कारण ज्ञात हो गया; अब तदनन्तर मार्गमें जाते हुए भगवान्से ब्राह्मणने अद्रोहकका जो वृत्तान्त हो, वह मुझे बताइये। पूछा-'तात ! तुलाधार न तो देवताओं एवं ऋषियोंका श्रीभगवान् बोले-विप्रवर ! पूर्वकालकी बात
और न पितरोंका ही तर्पण करता है। फिर देशान्तरमें है, एक राजपुत्रकी कुलवती स्त्री बड़ी सुन्दरी और नयी संघटित हुए मेरे वृत्तान्तको वह कैसे जानता है? इससे अवस्थाकी थी। वह कामदेवकी पत्नी रति और इन्द्रकी मुझे बड़ा विस्मय होता है। आप इसका सब कारण पत्नी शचीके समान मनको हरनेवाली थी। राजकुमार बताइये।
उसे अपने प्राणोंके समान प्यार करते थे। उस सुन्दरी श्रीभगवान् बोले-ब्रह्मन् ! उसने सत्य और भार्याका नाम भी सुन्दरी ही था। एक दिन राजकुमारको समतासे तीनों लोकोंको जीत लिया है; इसीसे उसके राजकार्यके लिये ही अकस्मात् बाहर जानेके लिये उद्यत ऊपर पितर, देवता तथा मुनि भी सन्तुष्ट रहते हैं। होना पड़ा। उन्होंने मन-ही-मन सोचा-'मैं प्राणोंसे भी धर्मात्मा तुलाधार उपर्युक्त गुणोंके कारण ही भूत और बढ़कर प्यारी अपनी इस भार्याको किस स्थानपर रखें, भविष्यकी सब बातें जानता है । सत्यसे बढ़कर कोई धर्म जिससे इसके सतीत्वकी रक्षा निश्चितरूपसे हो सके।'
और झूठसे बड़ा दूसरा कोई पाप नहीं है।* जो पुरुष इस बातपर खूब विचार करके राजकुमार सहसा पापसे रहित और समभावमें स्थित है, जिसका चित्त अद्रोहकके घरपर आये और उनसे अपनी पत्नीकी शत्रु, मित्र और उदासीनके प्रति समान है, उसके सब रक्षाका प्रस्ताव करने लगे। उनकी बात सुनकर पापोंका नाश हो जाता है और वह भगवान् श्रीविष्णुके अद्रोहकको बड़ा विस्मय हुआ। वे बोले-'तात ! न सायुज्यको प्राप्त होता है। समता धर्म और समता ही तो मैं आपका पिता हूँ, न भाई हूँ, न बान्धव हूँ, न उत्कृष्ट तपस्या है। जिसके हृदयमें सदा समता विराजती आपकी पत्नीके पिता-माताके कुलका ही; तथा है, वही पुरुष सम्पूर्ण लोकोंमें श्रेष्ठ, योगियोंमें गणना सुहृदोंमेंसे भी कोई नहीं हैं, फिर मेरे घरमें इसको रखनेसे करनेके योग्य और निलोंभ होता है। जो सदा इसी प्रकार आप किस प्रकार निश्चिन्त हो सकेंगे?' समतापूर्ण बर्ताव करता है, वह अपनी अनेकों राजकुमार बोले-महात्मन् ! इस संसारमें पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। उस पुरुषमें सल्य, आपके समान धर्मज्ञ और जितेन्द्रिय पुरुष दूसरा कोई इन्द्रिय-संयम; मनोनिग्रह, धीरता, स्थिरता, निर्लोभता नहीं है।
और आलस्यहीनता-ये सभी गुण प्रतिष्ठित होते हैं। यह सुनकर अद्रोहकने उस विज्ञ राजकुमारसे समताके प्रभावसे धर्मज्ञ पुरुष देवलोक और मनुष्य- कहा-'भैया ! मुझे दोष न देना । इस त्रिभुवन-मोहिनी लोकके सम्पूर्ण वृत्तान्तोंको जान लेता है। उसकी देहके भार्याकी रक्षा करने में कौन पुरुष समर्थ हो सकता है।'
* सत्येन समभावेन जितं तेन जगत्त्रयम् । तेनातृप्यन्त पितरो देवा मुनिगणैः सह ॥ भूतभव्यप्रवृत्तं च तेन जानाति धार्मिकः । नास्ति सत्यात्परो धमों नानृतात्पातकं परम्।
(४७१९२-९३)