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भूमिखण्ड]
• सोमशर्माकी पितृ-भक्ति.
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क्या होगी। अहो ! संसारमें पुण्यके ही बलसे उत्तम वैष्णवधामको जाओ। पुत्रकी प्राप्ति होती है। मुझे पाँच पुत्र प्राप्त हुए हैं, जिनका महर्षि शिवशर्माके यह उत्तम वचन कहते ही हृदय विशाल है तथा जिनमें एक-से-एक बढ़कर है। भगवान् श्रीविष्णु अपने हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और मेरे सभी पुत्र यज्ञ करनेवाले, पुण्यात्मा, तपस्वी, तेजस्वी पद्म धारण किये गरुड़पर सवार हो वहाँ आ पहुँचे और और पराक्रमी हैं।'
पुत्रोंसहित शिवशर्मासे बारंबार कहने लगे-'विप्रवर ! इस प्रकार माताके कहनेपर पुत्रोंको बड़ा हर्ष हुआ पुत्रोंसहित तुमने भक्तिके बलसे मुझे अपने वशमें कर और वे अपनी माताको प्रणाम करके बोले-'माँ! लिया है। अतः इन पुण्यात्मा पुत्रों तथा पतिके साथ अच्छे माता-पिताकी प्राप्ति बड़े पुण्यसे होती है। तुम रहनेकी इच्छावाली इस पुण्यमयी पलीको साथ लेकर सदा पुण्य कर्म करती रहती हो। हमारे बड़े भाग्य थे, जो तुम मेरे परमधामको चलो।' तुम हमें माताके रूपमें प्राप्त हुई, जिनके गर्भमें आकर शिवशर्माने कहा-भगवन् ! ये मेरे चारों पुत्र ही हमलोग उत्तम पुण्योंसे वृद्धिको प्राप्त हुए हैं। हमारी यही इस समय परम उत्तम वैष्णवधाममें चलें।मैं पत्नीके साथ अभिलाषा है कि प्रत्येक जन्ममें तुम्हीं हमारी माता और अभी भूलोकमें ही कुछ काल व्यतीत करना चाहता हूँ। ये ही हमारे पिता हो।'
मेरे साथ मेरा कनिष्ठ पुत्र सोमशर्मा भी रहेगा। पिता बोले-पुत्रो! तुमलोग मुझसे कोई परम सत्यभाषी महर्षि शिवशर्माके यों कहनेपर देवेश्वर उत्तम और पुण्यदायक वरदान मांगो। मेरे सन्तुष्ट होनेपर भगवान् श्रीविष्णुने उनके चार पुत्रोंसे कहा-'तुमलोग तुमलोग अक्षय लोकोंका उपभोग कर सकते हो। दाह और प्रलयसे रहित मोक्षदायक गोलोकधामको
पुत्रोंने कहा-पिताजी ! यदि आप हमपर प्रसन्न चलो।' भगवान्के इतना कहते ही उन चारों सत्यतेजस्वी हैं और वर देना चाहते हैं तो हमें भगवान् श्रीविष्णुके ब्राह्मणोंका तत्काल विष्णुके समान रूप हो गया, उनके गोलोकधाममें भेज दीजिये, जहाँ किसी प्रकारको चिन्ता शरीरका श्यामवर्ण इन्द्र नीलमणिके समान शोभा पाने और व्याधि नहीं फटकने पाती।
लगा। उनके हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित पिता बोले-पुत्रो ! तुमलोग सर्वथा निष्पाप हो; होने लगे। वे विष्णुरूपधारी महान् तेजस्वी द्विज इसलिये मेरे प्रसाद, तपस्या और इस पितृभक्तिके बलसे पितृभक्तिके प्रभावसे विष्णुधामको प्राप्त हो गये।
. सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
सूतजी कहते हैं-भगवान् श्रीविष्णुका रहे। धर्मात्मा सोमशर्मा दिन-रात आलस्य छोड़कर उस गोलोकधाम तमसे परे परम प्रकाशरूप है। पूर्वोक्त चारों अमृत-कुम्भकी रक्षा करते रहे। दस वर्षोके पश्चात् ब्राह्मण जब उस लोकमें चले गये, तब महाप्राज्ञ महायशस्वी शिवशर्मा पुनः लौटकर वहाँ आये। ये शिवशनि अपने छोटे पत्रसे कहा-'महामते! मायाका प्रयोग करके भार्यासहित कोढ़ी बन गये। जैसे सोमशर्मन् ! तुम पिताकी भक्ति में रत हो। मैं इस समय वे स्वयं कुष्ठरोगसे पीड़ित थे, उसी प्रकार उनकी स्त्री भी तुम्हें यह अमृतका घड़ा दे रहा हूँ, तुम सदा इसकी रक्षा थीं। दोनों ही मांसके पिण्डकी भाँति त्याग देनेयोग्य करना । मैं पलीके साथ तीर्थयात्रा करने जाऊँगा।' यह दिखायी देते थे। वे धीरचित्त ब्राह्मण महात्मा सोमशर्माके सुनकर सोमशर्माने कहा-'महाभाग ! ऐसा ही होगा।' समीप आये। वहाँ पधारे हुए माता-पिताको सर्वथा बुद्धिमान् शिवशर्मा सोमशर्माके हाथमें वह घड़ा देकर दुःखसे पीड़ित देख महायशस्वी सोमशर्माको बड़ी दया वहाँसे चल दिये और दस वर्षोतक निरन्तर तपस्या में लगे आयी । भक्तिसे उनका मस्तक झुक गया। वे उन दोनोंके