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भूमिखण्ड]
• श्रीभगवानके वरसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा वैकुण्ठमें जाना .
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देखता, तब कहता-'इस अन्नसे भगवान् श्रीविष्णु तृप्त कर्माम्बुदे महति गर्जति वर्वतीव हों।' वह धर्मात्मा बालक जब सोनेके लिये जाता, तब
विद्युल्लतोल्लसति पातकसञ्चयमें। वहाँ भी श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए कहता-'मैं मोहान्धकारपटलैर्मम नष्टदृष्टेयोगनिद्रापरायण भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें आया हूँ।'
र्दीनस्य तस्य मधुसूदन देहि हस्तम् ॥ इस प्रकार भोजन करते, वस्त्र पहनते, बैठते और सोते कर्मरूपी बादलोंकी भारी घटा घिरी हुई है, जो समय भी वह श्रीवासुदेवका चिन्तन करता और उन्हींको गरजती और बरसती भी है। मेरे पातकोंकी राशि सब वस्तुएँ समर्पित कर देता था। धर्मात्मा सुव्रत विद्युल्लताकी भाँति उसमें थिरक रही है। मोहरूपी युवावस्था आनेपर काम-भोगका परित्याग करके वैडूर्य अन्धकार-समूहसे मेरी दृष्टि-विवेकशक्ति नष्ट हो गयी पर्वतपर जा भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें लग गया। वहीं है, मैं अत्यन्त दीन हो रहा हूँ; मधुसूदन ! मुझे अपने उस मेधावीने श्रीविष्णुका चिन्तन करते हुए तपस्या हाथका सहारा दीजिये। आरम्भ कर दी। उस श्रेष्ठ पर्वतपर सिद्धेश्वर नामक संसारकाननवरं बहुदुःखवृक्षः स्थानके पास वह निर्जन वनमें रहता और काम-क्रोध
संसेव्यमानमपि मोहमयैश्च सिंहैः । आदि सम्पूर्ण दोषोंका परित्याग करके इन्द्रियोंको संयममें संदीप्तमस्ति करुणाबहुवह्नितेजः रखते हुए तपस्या करता था। उसने अपने मनको एकाग्र
संतप्यमानमनसं परिपाहि कृष्ण ॥ करके भगवान् श्रीविष्णुके साथ जोड़ दिया। इस प्रकार यह संसार एक महान् वन है, इसमें बहुत-से दुःख परमात्माके ध्यानमें सौ वर्षातक लगे रहनेपर उसके ऊपर ही वृक्षरूपमें स्थित हैं। मोहरूपी सिंह इसमें निर्भय शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् होकर निवास करते हैं; इसके भीतर शोकरूपी प्रचण्ड श्रीजगन्नाथ बहुत प्रसन्न हुए तथा लक्ष्मीजीके साथ दावानल प्रज्वलित हो रहा है, जिसकी आँचसे मेरा चित्त उसके सामने प्रकट होकर बोले-'धर्मात्मा सुव्रत ! सन्तप्त हो उठा है। कृष्ण ! इससे मुझे बचाइये। अब ध्यानसे उठो, तुम्हारा कल्याण हो; मैं विष्णु तुम्हारे संसारवृक्षमतिजीर्णमपीह उच्च पास आया हूँ, मुझसे वर माँगो ।' मेधावी सुव्रत भगवान्
मायासुकन्दकरुणाबहुदुःखशाखम् । श्रीविष्णुके ये उत्तम वचन सुनकर अत्यन्त हर्षमें भर जायादिसपछदनं फलितं मुरारे गये। उन्होंने आँख खोलकर देखा, जनार्दन सामने खड़े
तं चाधिरूढपतितं भगवन् हि रक्ष । हैं; फिर तो दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने श्रीभगवानको संसार एक वृक्षके समान है, यह अत्यन्त पुराना प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे। होनेके साथ बहुत ऊँचा भी है; माया इसकी जड़ है, शोक सुव्रत बोले
तथा नाना प्रकारके दुःख इसकी शाखाएँ हैं, पत्नी आदि संसारसागरमतीव गभीरपारं
परिवारके लोग पत्ते हैं और इसमें अनेक प्रकारके फल दुःखोर्मिभिविविधमोहमयैस्तरङ्गैः । लगे हैं। मुरारे ! मैं इस संसार-वृक्षपर चढ़कर गिर रहा हूँ; सम्पूर्णमस्ति निजदोषगुणैस्तु प्राप्त
भगवन् ! इस समय मेरी रक्षा कीजिये-मुझे बचाइये। तस्मात् समुद्धर जनार्दन मां सुदीनम् ॥ दुःखानलैर्विविधमोहमयैः सधूमः जनार्दन ! यह संसार-समुद्र अत्यन्त गहरा है, इसका
शोकैर्वियोगमरणान्तकसंनिभैश्च । पार पाना कठिन है। यह दुःखमयी लहरों और मोहमयी दग्धोऽस्मि कृष्ण सततं मम देहि मोक्षं भांति-भांतिकी तरङ्गोंसे भरा है। मैं अत्यन्त दीन हूँ और
ज्ञानाम्बुनाथ परिषिच्य सदैव मां त्वम् ।। अपने ही दोषों तथा गुणोंसे--पाप-पुण्योंसे प्रेरित होकर कृष्ण ! मैं दुःखरूपी अग्नि, विविध प्रकारके इसमें आ फँसा हूँ; अतः आप मेरा इससे उद्धार कीजिये। मोहरूपी धुएँ तथा वियोग, मृत्यु और कालके समान
सुयूपः