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. • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
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[संक्षिप्त पद्मपुराण
रहती है; मै सदा उन्हींके लिये तपस्या किया करती हूँ। तुम्हें लाज नहीं आती, अपने बर्तावपर घृणा नहीं होती? मैं अपने धर्ममार्गपर स्थित थी, किन्तु तूने माया रचकर तुम क्या मेरे सामने बोलती हो। कहाँ है तुम्हारी मेरे धर्मके साथ ही मुझे भी नष्ट कर दिया । इसलिये रे तपस्थाका प्रभाव । कहाँ है तुम्हारा तेज और बल । आज
दुष्ट ! तुझे भी मैं भस्म कर डालेंगी। ... ही मुझे अपना बल, वीर्य और पराक्रम दिखाओ। ____गोभिल बोला-राजकुमारो! यदि उचित पद्मावती बोली-ओ नीच असुर ! सुन; पिताने
समझो तो सुनो; मैं धर्मकी ही बात कह रहा हूँ। जो स्त्री स्नेहवश मुझे पतिके घरसे बुलाया है, इसमें कहाँ पाप प्रतिदिन मन, वाणी और क्रियाद्वारा अपने स्वामीकी सेवा है। मैं काम, लोभ, मोह तथा डाहके वश पतिको करती है, पतिके संतुष्ट रहनेपर स्वयं भी संतोषका छोड़कर नहीं आयी हूँ; मैं यहाँ भी पतिका चिन्तन करतो अनुभव करती है, पतिके क्रोधी होनेपर भी उसका त्याग हुई ही रहती हूँ। तुमने भी छलसे मेरे पतिका रूप धारण नहीं करती, उसके दोषोंकी ओर ध्यान नहीं देती, उसके करके ही मुझे धोखा दिया है। मारनेपर भी प्रसन्न होती है और स्वामीके सब कामोंमें गोभिलने कहा-पद्यावती ! मेरी युक्तियुक्त बात आगे रहती है, वही नारी पतिव्रता कही गयी है। यदि स्त्री सुनो। अंधे मनुष्योंको कुछ दिखायी नहीं देता; तुम इस लोकमें अपना कल्याण करना चाहती हो तो वह धर्मरूपी नेत्रसे हीन हो, फिर कैसे मुझे यहाँ पहचान पतित, रोगी, अङ्गहीन, कोढ़ी, सब धर्मोसे रहित तथा पाती । जिस समय तुम्हारे मनमें पिताके घर आनेका भाव पापी पतिका भी परित्याग न करे । जो स्वामीको छोड़कर उदय हुआ, उसी समय तुम पतिकी भावना छोड़कर जाती और दूसरे-दूसरे कामोमें मन लगाती है, वह उनके ध्यानसे मुक्त हो गयी थी। पतिका निरन्तर चिन्तन संसारमें सब धर्मोसे बहिष्कृत व्यभिचारिणी समझी जाती ही सतियोंके ज्ञानका तत्त्व है। जब वही नष्ट हो गया, है। जो पतिकी अनुपस्थितिमें लोलुपतावश ग्राम्य-भोग जब तुम्हारे हृदयकी आँख ही फूट गयी, तब ज्ञान-नेत्रसे तथा शृङ्गारका सेवन करती है, उसे मनुष्य कुलटा कहते हीन होनेपर तुम मुझे कैसे पहचानतीं। हैं। मुझे वेद और शास्त्रोद्वारा अनुमोदित धर्मका ज्ञान है। ब्राह्मणी कहती है-प्राणनाथ ! गोभिलको वात गृहस्थ-धर्मका परित्याग करके पतिको सेवा छोड़कर सुनकर राजकुमारी पद्मावती धरतीपर बैठ गयी। उसके यहाँ किसलिये आयौं ? इतनेपर भी अपने ही मुँहसे हृदयमें बड़ा दुःख हो रहा था। गोभिलने फिर कहाकहती हो-मैं पतिव्रता हूँ। कर्मसे तो तुममें पातिव्रत्यका 'शुभे! मैंने तुम्हारे उदरमें जो अपने वीर्यको स्थापना की लेशमात्र भी नहीं दिखायी देता। तुम डर-भय छोड़कर है, उससे तीनों लोकोंको त्रास पहुँचानेवाला पुत्र उत्पन्न पर्वत और वनमे मतवाली होकर घूमती-फिरती हो, होगा। यों कहकर वह दानव चला गया। गोभिल बड़ा इसलिये पापिनी हो। मैंने यह महान् दण्ड देकर तुम्हें दुराचारी और पापात्मा था। उसके चले जानेपर पद्मावती सीधी राहपर लगाया है-अब कभी तुमसे ऐसी धृष्टता महान् दुःखसे अभिभूत होकर रोने लगी। रोनेका शब्द नहीं हो सकती। बताओ तो, पतिको छोड़कर किसलिये सुनकर सखियाँ उसके पास दौड़ी आयीं और पूछने यहाँ आयी हो? यह शृङ्गार, ये आभूषण तथा यह लगीं- 'राजकुमारी ! रोती क्यों हो? मथुरानरेश मनोहर वेष धारण करके क्यों खड़ी हो ? पापिनी ! बोलो महाराज उग्रसेन कहाँ चले गये?' पद्यावतीने अत्यन्त न, किसलिये और किसके लिये यह सब किया है? दुःखसे रोते-रोते अपने छले जानेकी सारी बात बता दी। कहाँ है तुम्हारा पातिव्रत्य ? दिखाओ तो मेरे सामने। सहेलियाँ उसे पिताके घर ले गयीं। उस समय वह व्यभिचारिणी स्त्रियोंके समान बर्ताव करनेवाली नारी ! शोकसे कातर हो थर-थर कांप रही थी। सखियोंने तुम इस समय अपने पतिसे चार सौ कोस दूर हो; कहाँ पद्मावतीको माताके सामने सारी घटना कह दी। सुनते है तुममें पतिको देवता माननेका भाव। दुष्ट कहींकी ! हो महारानी अपने पतिके महलमे गयीं और उनसे