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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ...... [संक्षिप्त पापुराण
चाहता हूँ। इस कार्यमें तुम मेरी पूरी तरहसे सहायता इस पृथ्वीपर पुण्यका भागी है।' करो।
दूतीकी बात सुनकर मनस्विनी सुकलाने कहाकामदेवने उत्तर दिया-'सहस्रलोचन ! मैं 'देवि ! मेरे पति वैश्य जातिमें उत्पन्न, धर्मात्मा और आपकी इच्छा-पूर्तिके लिये आपकी सहायता अवश्य सत्यप्रेमी हैं, उन्हें लोग कृकल कहते हैं। मेरे स्वामीकी करूंगा। देवराज ! मैं देवताओं, मुनियों और बड़े-बड़े बुद्धि उत्तम है, उनका चित्त सदा धर्ममें ही लगा रहता ऋषीश्वरोको भी जीतनेकी शक्ति रखता है फिर एक है। वे इस समय तीर्थ-यात्राके लिये गये हैं। उन्हें गये साधारण कामिनीको, जिसके शरीरमें कोई बल ही नहीं आज तीन वर्ष हो गये। अतः उन महात्माके बिना मैं होता, जीतना कौन बड़ी बात है। मैं कामिनियोंके विभिन्न बहत दुःखी हैं। यही मेरा हाल है। अब यह बताओ कि अङ्गोंमें निवास करता हूँ। नारी मेरा घर है, उसके भीतर तुम कौन हो, जो मुझसे मेरा हाल पूछ रही हो?' मैं सदा मौजूद रहता हूँ। अतः भाई, पिता, स्वजन- सुकलाका कथन सुनकर दूतीने पुनः इस प्रकार कहना सम्बन्धी या बन्धु-बान्धव-कोई भी क्यों न हो, यदि आरम्भ किया-'सुन्दरी ! तुम्हारे स्वामी बड़े निर्दयी हैं, उसमें रूप और गुण है तो वह उसे देखकर मेरे बाणोंसे जो तुम्हें अकेली छोड़कर चले गये। वे अपनी प्रिय घायल हो ही जाती है। उसका चित्त चञ्चल हो जाता है, पत्रीके घातक जान पड़ते हैं, अब उन्हें लेकर क्या वह परिणामको चिन्ता नहीं करती। इसलिये देवेश्वर ! मैं करोगी। जो तुम-जैसी साध्वी और सदाचार-परायणा सुकलाके सतीत्वको अवश्य नष्ट करूँगा। पत्नीको छोड़कर चले गये, वे पापी नहीं तो क्या है।
इन्द्र बोले-मनोभव ! मैं रूपवान्, गुणवान् और बाले ! अब तो वे गये; अब उनसे तुम्हारा क्या नाता है। धनी बनकर कौतूहलवश इस नारीको [धर्म और] कौन जाने वे वहाँ जीवित हैं या मर गये। जीते भी हो धैर्यसे विचलित करूँगा।
तो उनसे तुम्हें क्या लेना है। तुम व्यर्थ ही इतना खेद कामदेवसे यो कहकर देवराज इन्द्र उस स्थानपर करती हो। इस सोने-जैसे शरीरको क्यों नष्ट करती हो। गये, जहाँ कृकल वैश्यकी प्यारी पत्नी सुकला देवी मनुष्य बचपनमें खेल-कूदके सिवा और किसी सुखका निवास करती थी । वहाँ जाकर वे अपने हाव-भाव, रूप अनुभव नहीं करता। बुढ़ापा आनेपर जब जरावस्था
और गुण आदिका प्रदर्शन करने लगे। रूप और शरीरको जीर्ण बना देती है, तब दुःख-ही-दुःख उठाना सम्पत्तिसे युक्त होनेपर भी उस पराये पुरुषपर सुकला रह जाता है। इसलिये सुन्दरी ! जबतक जवानी है, दृष्टि नहीं डालती थी; परन्तु वह जहाँ-जहाँ जाती, तभीतक संसारके सम्पूर्ण सुख और भोग भोग लो। वहीं-वहीं पहुँचकर इन्द्र उसे निहारते थे। इस प्रकार मनुष्य जबतक जवान रहता है, तभीतक वह भोग सहस्रनेत्रधारी इन्द्र अपने सम्पूर्ण भावोंसे कामजनित भोगता है। सुख-भोग आदिकी सब सामग्रियोंका चेष्टा प्रदर्शित करते हुए चाहभरे हृदयसे उसकी ओर इच्छानुसार सेवन करता है। इधर देखो-ये एक पुरुष देखते थे। इन्द्रने उसके पास अपनी दूती भी भेजी । वह आये हैं, जो बड़े सुन्दर, गुणवान, सर्वज्ञ, धनी तथा मुसकराती हुई गयी और मन-ही-मन सुकलाको प्रशंसा पुरुषों में श्रेष्ठ है। तुम्हारे ऊपर इनका बड़ा स्रेह है; ये सदा करती हुई बोली-'अहो ! इस नारीमें कितना सत्य, तुम्हारे हित-साधनके लिये प्रयत्नशील रहते हैं। इनके कितना धैर्य, कितना तेज और कितना क्षमाभाव है। शरीरमें कभी बुढ़ापा नहीं आता । स्वयं तो ये सिद्ध है ही, संसारमें इसके रूपकी समानता करनेवाली दूसरी कोई दूसरोंको भी उत्तम सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं। उत्तम भी सुन्दरी नहीं है।' इसके बाद उसने सुकलासे सिद्ध और सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ है। लोकमें अपने स्वरूपसे पूछा-'कल्याणी ! तुम कौन हो, किसकी पत्नी हो? सबकी कामना पूर्ण करते हैं। जिस पुरुषको तुम-जैसी गुणवती भार्या प्राप्त है, वही सुकला बोली-दूती! यह शरीर मल-मूत्रका