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भूमिखण्ड ]
• सुनीथाकी तपस्या, अनके साथ उसका गान्धर्व विवाह और वेनका जन्म
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होकर भगवान् श्रीजनार्दनका चिन्तन कर रहे थे। उत्तम प्राप्तिके लिये मैं अदेय वस्तु भी दे सकता हूँ। ताल-स्वरके साथ गाया हुआ वह मधुर और मनोहर रम्भा बोली-'द्विजश्रेष्ठ ! आपको इसी प्रकार गीत सुनकर अङ्गका चित्त ध्यानसे विचलित हो गया। उदारतापूर्वक इसकी अभीष्ट वस्तु इसे देनी चाहिये। यह उस मायामय सङ्गीतने उन्हें मोह लिया था। वे तुरंत ही सदाके लिये आपकी धर्मपत्नी हो रही है। आप कभी आसनसे उठे और वारंबार इधर-उधर दृष्टि दौड़ाने लगे। इसका परित्याग न करें। इसके दोष-गुणोंपर कभी मायासे उनका मन चञ्चल हो उठा था। वे बड़े वेगसे आपको ध्यान नहीं देना चाहिये । विप्रवर ! इस विषयमें बाहर निकले और झूलेपर बैठी हुई वीणाधारिणी स्त्रीकी आप मुझे प्रत्यक्ष विश्वास दिलाइये। सत्यकी प्रतीति ओर देखा । वह मुसकराती हुई गा रही थी। महायशस्वी दिलानेवाला अपना हाथ इसके हाथमें दीजिये।' अङ्गने अन उसके गीत और रूप दोनोंपर मुग्ध हो गये। कहा-'एवमस्तु । निश्चय ही अपना हाथ मैंने इसे दे तत्पश्चात् वे महान् मोहके वशीभूत हो उस तरुणीके पास दिया।' गये। विशाल नेत्र और मनोहर मुसकानवाली मृत्युकी इस प्रकार सत्यका विश्वास करानेवाला सम्बन्ध यशस्विनौ कन्या सुनीथाको देखकर अङ्गने पूछा- करके अङ्गने सुनीथाको गान्धर्व-विवाहको प्रणालीके 'सुन्दरी ! तुम कौन हो? किसकी कन्या हो? सखियोंसे अनुसार ग्रहण किया। सुनीथाको उन्हें सौपकर रम्भाके घिरी हुई यहाँ किस कामसे आयी हो? किसने तुम्हें इस हृदयमें बड़ा हर्ष हुआ। वह अपनी सखीसे आज्ञा लेकर वनमें भेजा है?'
घरको चली गयी। दूसरी-दूसरी सखियोंने भी प्रसन्न परम बुद्धिमान् अङ्गका यह महत्त्वपूर्ण वचन होकर अपने-अपने घरकी राह ली। उन सब सहेलियोंके सुनकर सुनीथा उनसे कुछ न बोली। उसने केवल चले जानेपर द्विजश्रेष्ठ अङ्ग अपनी प्यारी पत्नीके साथ सखीके मुखकी ओर देखा । रम्भाने इशारेसे कुछ कहकर विहार करने लगे। उसके गर्भसे उन्होंने एक सर्वलक्षणसुनीथाको समझा दिया और वह स्वयं ही उन श्रेष्ठ सम्पन्न पुत्र उत्पन्न किया और उसका नाम वेन रखा। ब्राह्मणसे आदरपूर्वक बोली-'महर्षे ! यह मृत्युकी सुनीथाका वह महातेजस्वी बालक दिनोंदिन बढ़ने लगा परम सौभाग्यवती कन्या है, लोकमें इसकी सुनीथाके और वेद-शास्त्र तथा उपकारी धनुर्वेदका अध्ययन करके नामसे प्रसिद्धि है। यह सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न है। समस्त विद्याओंका पारगामी विद्वान् हो गया। क्योंकि इस समय यह बाला अपने लिये धर्मात्मा, तपस्वी, वह वड़ा मेधावी था। अङ्गकुमार वेन सज्जनोचित शान्त, जितेन्द्रिय, महाप्राज्ञ और वेदविद्या-विशारद आचारसे रहता था। वह क्षत्रियधर्मका पालन करने पतिको खोजमें है।'
लगा। वैवस्वत मन्वन्तर आनेपर संसारकी सारी प्रजा यह सुनकर अङ्गने अप्सराओंमें श्रेष्ठ रम्भासे राजाके बिना निरन्तर कष्ट पाने लगी। उस समय सब कहा-'भद्रे ! मैंने सर्वविश्वमय भगवान् श्रीहरिकी लोगोंने वेनको ही सब लक्षणोंसे सम्पन्न देखा । तब श्रेष्ठ आराधना की है। उन्होंने मुझे पुत्र होनेका वरदान दिया है, ब्राह्मणोंने उन्हें प्रजापतिके पदपर अभिषिक्त कर दिया। जो सम्पूर्ण सिद्धियोंका दाता है। अतः इस वरदानकी तत्पश्चात् समस्त ऋषि अपने-अपने तपोवनमें चले गये। सफलताके निमित्त-उत्तम पुत्रकी प्राप्तिके लिये मैं उन सबके जानेके पश्चात् अकेले वेन ही राज्यका पालन किसी पुण्यबलसे सम्पन्न महापुरुषकी कन्याके साथ करने लगे। इस प्रकार वेन भूमण्डलके प्रजापालक हुए। विवाहका विचार कर रहा था; किन्तु कहीं भी अपने उनके समयमें सब लोग सुखसे जीवन विताते थे। प्रजा लिये परम मङ्गलमयी कन्या नहीं पा सका । यह धर्मकी उनके धर्मसे प्रसन्न रहती थी। वेनके राज्यका प्रभाव सुमुखी कन्या धर्माचारपरायणा है। यदि वास्तवमें यह ऐसा ही था। उनके शासनकालमें सर्वत्र धर्मका प्रभाव पतिकी ही तलाशमें है तो मुझे ही स्वीकार करे। इसकी छा रहा था।