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अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
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काम, लोभ, भय अथवा मोहके कारण उसे युद्धका अवसर नहीं देता, वह एक हजार युगोंतक कुम्भीपाक नामक नरक में निवास करता है। वीर पुरुष युद्धमें शत्रुका सामना करके यदि उसे जीत लेता है तो यश और कीर्तिका उपभोग करता है; अथवा निर्भयतापूर्वक लड़ता हुआ यदि स्वयं ही मारा जाता है, तो वीरलोकको प्राप्त हो दिव्य भोगोंका उपभोग करता है। प्रिये ! बीस हजार वर्णेतिक वह इस सुखका अनुभव करता है। मनुपुत्र राजा इक्ष्वाकु यहाँ पधारे हैं, जो स्वयं बड़े वीर हैं। ये मुझसे युद्ध चाहें तो मुझे अवश्य ही इन्हें युद्धका अवसर देना चाहिये। शुभे ! महाराज युद्धके अतिथि होकर आये हैं और अतिथि सनातन श्रीविष्णुका स्वरूप होता है; अतः युद्धरूपसे इनका सत्कार करना मेरा आवश्यक कर्तव्य है।
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शूकरी बोली- प्राणनाथ! यदि आप महात्मा राजाको युद्धका अवसर प्रदान करेंगे तो मैं भी आपके साथ रहकर आपका पराक्रम देखूँगी ।
यों कहकर शूकरीने तुरंत अपने प्यारे पुत्रोंको बुलाया और कहा - 'बच्चो ! मेरी बात सुनो; युद्धभूमिमें सनातन विष्णुरूप अतिथि पधारे हैं, उनके सत्कारके लिये मेरे स्वामी जायँगे; इनके साथ मुझे भी वहाँ जाना चाहिये। तुम्हारी रक्षा करनेवाले प्राणनाथ जबतक यहाँ उपस्थित हैं, तभीतक तुम दूरके पर्वतकी किसी दुर्गम गुफायें चले जाओ । पुत्रो ! मनुपुत्र इक्ष्वाकु बड़े बलवान् और दुर्दमनीय राजा हैं; ये हमलोगोंके लिये कालस्वरूप हैं, सबका संहार कर डालेंगे। अतः तुम दूर भाग जाओ।
पुत्रोंने कहा—जो माता-पिताको [संकटमें] छोड़कर जाता है, वह पापात्मा है, उसे महारौद्र एवं अत्यन्त घोर नरकमें गिरना पड़ता है, यह उसके लिये अनिवार्य गति है। जो निर्दयी अपनी माताके पवित्र दूधको पीकर परिपुष्ट होता है और माँ-बापको [विपत्तिमें] छोड़कर चल देता है, वह कीड़ों और दुर्गन्धसे परिपूर्ण नरकमें पड़कर सदा पीबका भोजन करता है। इसलिये माँ हमलोग पिताको और तुम्हें
[ संक्षिप्त पद्यपुराण
यहाँ छोड़कर नहीं जायेंगे।
ऐसा निश्चय करके समस्त शूकर मोर्चा बाँधकर खड़े हो गये। वे सभी बल और तेजसे सम्पन्न थे ।
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उधर अयोध्याके वीर महाराज मनुकुमार इक्ष्वाकु अपनी सुन्दरी भार्या तथा चतुरङ्गिणी सेनाके साथ आखेटके लिये चले। उनके आगे-आगे व्याध, कुत्ते और तेज चलनेवाले वीर योद्धा थे । वे लोग उस स्थानके समीप गये, जहाँ बलवान् शूकर अपनी पत्नीके साथ मौजूद था। छोटे-बड़े बहुत-से सूअर सब ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे। गङ्गाके किनारे मेरु पर्वतकी तराईमें पहुँचकर महाराज इक्ष्वाकुने व्याधोंसे कहा'बड़े-बड़े वीर योद्धाओंको शूकरका सामना करनेके लिये भेजो।' इस प्रकार महाराजकी आज्ञासे भेजे हुए बलवान्, तेजस्वी तथा पराक्रमी योद्धा हाँका डालते हुए दौड़े और वायुके समान वेगसे चलकर तत्काल शूकरके पास जा पहुँचे। वनचारी व्याध अपने तीखे बाणों तथा चमचमाते हुए नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे वीरोंका बाना बाँधकर खड़े हुए और उस वराहको बींधने लगे।
यह देख वह यूथपति वराह अपने सैकड़ों पुत्र, पौत्र तथा बान्धवोंके साथ युद्धके मैदानमें आ धमका और शत्रुओंपर टूट पड़ा। वह बड़े वेगसे उनका संहार करने लगा। व्याध उसकी पैनी दाढ़ोंसे घायल हो-होकर समरभूमिमें गिरने लगे। तदनन्तर शूकरों और व्याधोंमें भयानक संग्राम आरम्भ हुआ। वे क्रोधसे लाल आँखें किये एक-दूसरेको मारने लगे। व्याधोंने बहुतेरे शूकरोंको और शूकरोंने अनेक व्याधोंको मार गिराया। वहाँकी जमीन खूनसे रंग गयी। कितने ही सूअर मर-खप गये, कितने घायल हुए और कितने ही भाग भागकर बीहड़ स्थानों, झाड़ियों, कन्दराओं और अपनी-अपनी माँदोंमें जा घुसे। यही दशा व्याधोंकी भी हुई। कितने ही मर गये, कितने ही सूअरोंकी पैनी दाढ़ोंके आघातसे कट गये और कितने ही टुकड़े-टुकड़े होकर प्राण त्याग स्वर्गलोकको चले गये। केवल वह बलाभिमानी वराह अपनी पत्नी तथा पाँच-सात