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भूमिखण्ड ]
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शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मका वर्णन तथा रानी सुदेवाके पुण्यसे उसका उद्धार
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शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
शूकरी बोली- कलिङ्ग (उड़ीसा) नामसे प्रसिद्ध एक सुन्दर देश है, वहाँ श्रीपुर नामका एक नगर था। उसमें वसुदत्त नामके एक ब्राह्मण निवास करते थे। वे सदा सत्यधर्म में तत्पर, वेदवेत्ता, ज्ञानी, तेजस्वी, गुणवान् और धनधान्यसे भरे-पूरे थे। अनेक पुत्र-पौत्र उनके घरकी शोभा बढ़ाते थे। मैं वसुदत्तकी पुत्री थी; मेरे और भी कई भाई, स्वजन तथा बान्धव थे। परम बुद्धिमान् पिताने मेरा नाम सुदेवा रखा। मैं अप्रतिम सुन्दरी थी। संसारमें दूसरी कोई स्त्री ऐसी नहीं थी, जो रूपमें मेरी समानता कर सके। रूपके साथ ही चढ़ती जवानी पाकर मैं गर्वसे उन्मत्त हो उठी। मेरी मुसकान बड़ी मनोहर थी। बचपनके बाद जब मुझे हाव-भावसे युक्त यौवन प्राप्त हुआ, तब मेरा भरा-पूरा रूप देखकर मेरी माताको बड़ा दुःख हुआ। वह पितासे बोली'महाभाग ! आप कन्याका विवाह क्यों नहीं कर देते ? अब यह जवान हो चुकी है, इसे किसी योग्य वरको सौंप दीजिये।' वसुदत्तने कहा- 'कल्याणी ! सुनो मैं उसी वरके साथ इसका विवाह करूँगा, जो विवाहके पश्चात् मेरे ही घरपर निवास करे; क्योंकि सुदेवा मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारी है। मैं इसे आँखोंसे ओट नहीं होने देना चाहता।'
तदनन्तर एक दिन सम्पूर्ण विद्याओंमें विशारद एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण भिक्षाके लिये मेरे द्वारपर आये उन्होंने वेदोंका पूर्ण अध्ययन किया था। वे बड़े अच्छे स्वरसे वेद मन्त्रोंका उच्चारण करते थे। उन्हें आया देख मेरे पिताने पूछा- 'आप कौन हैं? आपका नाम, कुल, गोत्र और आचार क्या है ? यह बताइये।' पिताकी बात सुनकर ब्राह्मण कुमारने उत्तर दिया- 'कौशिकवंशमें मेरा जन्म हुआ है। मैं वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् हूँ मेरा नाम शिवशर्मा है; मेरे माता-पिता अब इस संसार में नहीं हैं।' शिवशर्माने जब इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब मेरे पिताने शुभ लग्नमें उनके साथ मेरा विवाह
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कर दिया। अब उनके साथ ही मैं पिताके घरपर रहने लगी। परन्तु मैं माता-पिताके धनके घमंडसे अपनी विवेकशक्ति खो बैठी थी। मुझ पापिनीने कभी भी अपने स्वामीकी सेवा नहीं की। मैं सदा उन्हें क्रूर दृष्टिसे ही देखा करती थी। कुछ व्यभिचारिणी स्त्रियोंका साथ हो गया था, अतः सङ्ग-दोषसे मेरे मनमें भी वैसा ही नीच भाव आ गया था। मैं जहाँ-तहाँ स्वच्छन्दतापूर्वक घूमती-फिरती और माता-पिता, पति तथा भाइयोंके हितकी परवा नहीं करती थी। शिवशर्माका शील और उनकी साधुता सबको ज्ञात थी, अतः माता-पिता आदि सब लोग मेरे पापसे दुःखी रहते थे। मेरा दुष्कर्म देख पतिदेव उस घरको छोड़कर चले गये। उनके जानेसे पिताजीको बड़ी चिन्ता हुई। उन्हें दुःखसे व्याकुल देख माताने पूछा- 'नाथ! आप चिन्तित क्यों हो रहे हैं ?' वसुदत्तने कहा- 'प्रिये! सुनो, दामाद मेरी पुत्रीको त्यागकर चले गये। सुदेवा पापाचारिणी है और वे पण्डित तथा बुद्धिमान् थे। मैं क्या जानता था कि यह मेरी कन्या सुदेवा ऐसी दुष्टा और कुलनाशिनी होगी।'
ब्राह्मणी बोली - नाथ! आज आपको पुत्रीके गुण और दोषका ज्ञान हुआ है— इस समय आपकी आँखें खुली हैं; किन्तु सच तो यह है कि आपके ही मोह और स्नेहसे- लाड़ और प्यारसे यह इस प्रकार बिगड़ी है। अब मेरी बात सुनिये - सन्तान जबतक पाँच वर्षकी न हो जाय, तभीतक उसका लाड़-प्यार करना चाहिये। उसके बाद सदा सन्तानकी शिक्षाकी ओर ध्यान देते हुए उसका पालन-पोषण करना उचित है। नहलाना-धुलाना, उत्तम वस्त्र पहनाना, अच्छे खान-पानका प्रबन्ध करना – ये सब बातें सन्तानकी पुष्टिके लिये आवश्यक हैं। साथ ही पुत्रोंको उत्तम गुण और विद्याकी ओर भी लगाना चाहिये। पिताका कर्तव्य है कि वह सन्तानको सद्गुणोंकी शिक्षा देनेके लिये सदा कठोर बना रहे। केवल पालन-पोषणके लिये उसके प्रति मोह ममता
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