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. अर्जयस्व हुयीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
NEXANE
गीतविद्याधरने कहा-महामते! जिस ही रूपमें वे फिर वहाँ गये और बारंबार अट्टहास करने महात्माने इन्द्रियोंके समुदाय तथा उसके बलको जोत लगे। कभी ठहाका मारकर हँसते, कभी रोते और कभी लिया है, उसीको तपस्वी, योगी, धीर और साधक कहते मधुर स्वरसे गीत गाते थे। है। आप जितेन्द्रिय नहीं हैं, इसीलिये तेजसे हीन है। ब्रह्मन् ! यह वन सबके लिये साधारण है-इसपर सबका समान अधिकार है। इसमें कोई 'ननु नच' नहीं हो सकता। जैसे इसके ऊपर देवताओं और सम्पूर्ण जीवोंका स्वत्व है, उसी प्रकार मेरा और आपका भी है। ऐसी दशामें मैं इस उत्तम वनको छोड़कर क्यों चला जाऊँ ? आप जायें, चाहे रहे; मुझे इसकी परवा नहीं है।
विप्रवर पुलस्त्यजी धर्मात्मा है; इसलिये वे क्षमा करके स्वयं ही उस स्थानको छोड़कर अन्यत्र चले गये
और योगासनसे बैठकर तपस्या करने लगे। महाभाग मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यके चले जानेपर दीर्घकालके पश्चात् गन्धर्वको पुनः उनका स्मरण हो आया। वे सोचने लगे-'मुनि मेरे ही भयसे भाग गये थे-चलें, देखें। कहाँ गये? क्या करते है और कहाँ रहते हैं? यह विचारकर गीतविद्याधरने पहले महर्षिके स्थानका पता लगाया और फिर वराहका रूप धारण करके वे उनके सूअरकी चेष्टा छिपी देखकर मुनि समझ गये कि उत्तम आश्रमपर गये, जहाँ पुलस्त्यजी आसनपर हो-न-हो, यह वही नीच गन्धर्व है और मुझे ध्यानसे विराजमान थे। उनके शरीरसे तेजकी ज्वाला उठ रही विचलित करनेकी चेष्टा कर रहा है। फिर तो उन्हें बड़ा थी। किन्तु मेरे पतिपर इसका कुछ प्रभाव न पड़ा, वे क्रोध हुआ। वे शाप देते हुए बोले-'ओ महापापी ! कुचेष्टापूर्वक थूथुनके अग्रभागसे उन नियमशील तू शूकरका रूप धारण करके मुझे इस प्रकार विचलित ब्राह्मणका तिरस्कार करने लगे। यहाँतक कि उनके आगे कर रहा है, इसलिये अब शूकरको हो योनिमें जा।' जाकर उन्होंने मल-मूत्रतक कर दिया; किन्तु पशु देवि ! यही मेरे पतिके शूकरयोनिमें पड़नेका वृत्तान्त है। जानकर मुनिने उनको छोड़ दिया-दण्ड नहीं दिया। यह सब मैंने तुम्हें सुना दिया। अब अपना हाल बताती [मुनिकी इस क्षमाका मेरे पतिपर उलटा ही असर हुआ, हूँ, सुनो। पूर्वजन्ममें मुझ पापिनीने भी घोर पातक उनकी उद्दण्डता और भी बढ़ गयी । एक दिन शूकरके किया है।