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भूमिखण्ड ] • सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर-शूकरीका उपाख्यान सुनाना •
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कहा-'देवि ! तुमने मेरा अभिषेक किया है, इसलिये मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजी मनोहर कन्दराओं और झरनोंसे तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे दर्शन और स्पर्शसे आज सुशोभित गिरिवर मेरुपर निष्कपट भावसे तपस्या कर रहे
थे। रङ्गविद्याधर अपनी इच्छाके अनुसार उस स्थानपर गये और एक वृक्षकी छायामें बैठकर गानेका अभ्यास करने लगे। उनका मधुर संगीत सुनकर मुनिका चित्त ध्यानसे विचलित हो गया । वे गायकके पास जाकर बोले- “विद्वन् ! तुम्हारे गीतके उत्तम स्वर, ताल, लय
और मूर्च्छनायुक्त भावसे मेरा मन ध्यानसे विचलित हो गया है। जब मन निश्चल होता है, तभी समस्त विद्याएँ प्राणियोंको सिद्धि प्रदान करती है। मन एकाग्र होनेपर ही तप और मन्त्रोंकी सिद्धि होती है। इन्द्रियोंका यह महान् समुदाय अधम और चाल है; यह मनको ध्यानसे हटाकर सदा विषयोंकी ओर ही ले जाता है। इसलिये जहाँ शब्द, रूप तथा युवती स्त्रीका अभाव होता है, वहीं मुनिलोग अपने तपकी सिद्धिके लिये जाया करते है। [तुम्हारे इस संगीतसे मेरे ध्यानमें बाधा पड़ती है] अतः
मेरा अनुरोध है कि तुम इस स्थानको छोड़कर कहीं मेरी पापराशि नष्ट हो गयी।' पशुके मुखसे यह अद्भुत अन्यन्त्र चले जाओ; अन्यथा मुझे ही यह स्थान छोड़कर वचन सुनकर रानी सुदेवाको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे दूसरी जगह जाना पड़ेगा।' मन-ही-मन कहने लगी-'यह तो आज मैने विचित्र बात देखी; पशु-जातिकी यह मादा इतनी स्पष्ट, सुन्दर, स्वर और व्यञ्जनसे युक्त तथा उत्तम संस्कृत बोल रही है!' महाभागा सुदेवा इस घटनासे हर्ष-मग्न होकर अपने पतिसे बोली-'राजन् ! इधर देखिये, यह अपूर्व जीव है; पशु-जातिकी स्त्री होकर भी मानवीकी भाँति उत्तम संस्कृत बोल रही है। इसके बाद रानीने शूकरीसे उसका परिचय पूछा-'भद्रे ! तुम कौन हो? तुम्हारा बर्ताव तो बड़ा विचित्र दिखायी देता है; तुम पशुयोनिकी स्त्री होकर भी मनुष्योंकी तरह बोलती हो। अपने और अपने स्वामीके पूर्व-जन्मका वृत्तान्त सुनाओ।'
शूकरी बोली-देवि ! मेरे पति पूर्वजन्ममें संगीत-कुशल गन्धर्व थे; इनका नाम रङ्ग विद्याधर था। [कुछ लोग इन्हें गीतविद्याधर भी कहते थे। ये सब शास्त्रोंके मर्मज्ञ थे। एक समयकी बात है, महातेजस्वी