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भूमिखण्ड ]
• सुनीथाकी तपस्या, अङ्गके साथ उसका गान्धर्वविवाह और वेनका जन्म .
परित्याग कर देता है।* जिसमें सत्यकी अग्नि प्रज्वलित मायाको त्याग दिया। एक दिन उसके पास उसकी रम्भा रहती है, वह अपने पुण्यमय तेजसे प्रकाशमान होता आदि सखियाँ, जो तपःशक्तिसे सम्पन्न थीं, आयीं उन्होंने रहता है। जिसमें सत्यकी दीप्ति है, जो ज्ञानके द्वारा भी देखा, सुनीथा दुःखका अनुभव कर रही है। ध्यानके ही अत्यन्त निर्मल हो गया है तथा ध्यानके द्वारा अत्यन्त साथ उसे चिन्ता करते देख वहाँ आयी हुई सलेहियोंने तेजस्वी प्रतीत होता है, पापसे पैदा हुए मनुष्य उसका कहा–'सखी ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम चिन्ता स्पर्श नहीं कर सकते। सत्यरूपी अग्निसे महात्मा पुरुष किसलिये करती हो? इस चिन्तामें क्यों डूबी हुई हो? पापरूपी ईधनको भस्म कर डालना चाहता है। इसलिये अपने सन्तापका कारण बताओ। चिन्ता तो केवल दुःख बेटी ! तुझे सत्यका संसर्ग करना चाहिये, असत्यका देनेवाली होती है। एक ही चिन्ता सार्थक मानी गयी है, नहीं। महाभागे ! जाओ, भगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन जो धर्मके लिये की जाती है। धर्मनन्दिनी ! दूसरी चिन्ता करो; पापभावको छोड़कर केवल पुण्यका आश्रय लो।' जो योगियोंके हृदयमें होती है, [जिसके द्वारा वे ब्रह्मका
पिताके इस प्रकार समझानेपर दुःखमें पड़ी हुई चिन्तन करते हैं] वह भी सार्थक है। इनके सिवा और सुनीथा उनके चरणोंमें प्रणाम करके निर्जन वनमें चली जितनी भी चित्ताएँ हैं, सब निरर्थक है। उसकी कल्पना गयी और वहाँ एकान्तमें रहकर तपस्या करने लगी। भी नहीं करनी चाहिये। चिन्ता शरीर, बल और तेजका उसने काम, क्रोध, बालोचित चपलता, मोह, द्रोह और नाश करनेवाली है; वह सारे सुखोंको नष्ट कर डालती
है। साथ ही रूपको भी हानि पहुँचाती है। चिन्ता तृष्णा, मोह और लोभ-इन तीन दोषोंको ले आती है तथा प्रतिदिन उसीमें घुलते रहनेपर वह पापको भी उत्पन्न करती है। चिन्ता रोगोंकी उत्पत्ति और नरककी प्राप्तिका कारण है। अतः चिन्ताको छोड़ो जीव पूर्वजन्ममें अपने कर्मोद्वारा जिन शुभाशुभ भोगोंका उपार्जन करता है, उन्हींका वह दूसरे जन्ममें उपभोग करता है। अतः समझदारको चिन्ता नहीं करनी चाहिये। तुम चिन्ता छोड़कर अपने सुख-दुःख आदिकी ही बात बताओ।
सखियोंके ये वचन सुनकर सुनीथाने अपना वृत्तान्त कहना आरम्भ किया। पहले सुशङ्खने उसे वनमें जिस प्रकार शाप दिया था, वह सारी घटना उसने सहेलियोंसे कह सुनायी। उसने अपने अपराधोंका भी वर्णन किया। उस समय महाभागा सुनीथा मानसिक दुःखसे बड़ा कष्ट
* सता सङ्गो महापुण्यो बहुक्षेमप्रदायकः । बाले पश्य सुदृष्टान्तं सतां सहस्य यद्गुणम्॥
अपां संस्पर्शनात्मानापानाद् दर्शनतोऽपि वा।। मुनयः सिद्धिमायान्ति बाह्याभ्यन्तरक्षालिताः । आयुष्मन्तो भवत्येते लोकाः सर्वे चराचराः ॥ अपि सन्तोषशीलश मृदुगामी प्रियङ्करः । निर्मलो रसाशासौ पुण्यवीयों मलापहः ॥ तथा शान्तो भवेत् पुत्रि सर्वसौख्यप्रदायकः। यथा वहिप्रसंगाच मलं त्यजति काश्चनम् ॥
तथा सती हि संसर्गात् पापं त्यजति मानवः ।।
(३२ ॥ १४-१९)