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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्
दानका काम्यकाल बताया है। राजन्! मैं तुमसे आभ्युदयिक कालका भी वर्णन करता हूँ। सम्पूर्ण शुभकर्मोका अवसर, उत्तम वैवाहिक उत्सव, नवजात पुत्रके जातकर्म आदि संस्कार तथा चूड़ाकर्म और उपनयन आदिका समय, मन्दिर, ध्वजा, देवता, बावली, कुआं, सरोवर और बगीचे आदिकी प्रतिष्ठाका शुभ अवसर – इन सबको आभ्युदयिक काल कहा गया है। उस समय जो दान दिया जाता है, वह सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला होता है।
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नृपश्रेष्ठ! अब मैं पाप और पीड़ाका निवारण करनेवाले अन्य कालका वर्णन करता हूँ। मृत्युकाल प्राप्त होनेपर अपने शरीरके नाशको समझकर दान देना चाहिये। वह दान यमलोकके मार्गमें सुख पहुँचानेवाला होता है। महाराज ! नित्य, नैमित्तिक और काम्याभ्युदयिक कालसे भिन्न अन्त्यकाल ( मृत्युसम्बन्धी काल ) का तुम्हें परिचय दिया गया। ये सभी काल अपने कर्मोंका फल देनेवाले बताये गये हैं।
राजन् ! अब मैं तुम्हें तीर्थका लक्षण बताता हूँ। उत्तम तीर्थोंमें ये गङ्गाजी बड़ी पावन जान पड़ती हैं इनके सिवा सरस्वती, नर्मदा, यमुना, तापी (ताप्ती), चर्मण्वती सरयू घाघरा और वेणा नदी भी पुण्यमयी तथा पापोंका नाश करनेवाली हैं। कावेरी, कपिला, विशाला, गोदावरी और तुङ्गभद्रा – ये भी जगत्को पवित्र करनेवाली मानी गयी हैं। भीमरथी नदी सदा पापोंको भय देनेवाली बतायी गयी है। वेदिका, कृष्णगङ्गा तथा अन्यान्य श्रेष्ठ नदियाँ भी उत्तम हैं। पुण्यपर्व के अवसरपर स्नान करनेके लिये इनसे सम्बद्ध अनेक तीर्थ हैं। गाँव अथवा जंगलमें जहाँ भी नदियाँ हों, सर्वत्र ही वे पावन मानी गयी हैं। अतः वहाँ जाकर स्नान, दान आदि कर्म करने चाहिये। यदि नदियोंके तीर्थका नाम ज्ञात न हो तो उसका 'विष्णुतीर्थ' नाम रख लेना चाहिये। सभी तीर्थोंमें मैं ही देवता हूँ। तीर्थ भी मुझसे भिन्न नहीं हैं यह निश्चित बात है जो साधक तीर्थ-देवताओंके पास जाकर मेरे ही नामका उच्चारण करता है, उसे मेरे नामके अनुसार ही पुण्य फल प्राप्त होता है। नृपनन्दन । अज्ञात
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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तीर्थों और देवताओंकी संनिधिमें स्नान-दान आदि करते हुए मेरे ही नामका उच्चारण करना चाहिये। विधाताने तीर्थोका नाम ही ऐसा रखा है।
भूमण्डलपर सात सिन्धु परम पवित्र और सर्वत्र स्थित हैं। जहाँ कहीं भी उत्तम तीर्थ प्राप्त हो, वहाँ स्नान-दान आदि कर्म करना चाहिये। उत्तम तीर्थोक प्रभावसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। राजन् ! मानस आदि सरोवर भी पावन तीर्थ बताये गये है तथा जो छोटी-छोटी नदियाँ हैं, उनमें भी तीर्थ प्रतिष्ठित है। कुएँको छोड़कर जितने भी खोदे हुए जलाशय हैं, उनमें तीर्थकी प्रतिष्ठा है। भूतलपर जो मेरु आदि पर्वत हैं, वे भी तीर्थरूप हैं। यज्ञभूमि, यज्ञ और अग्निहोत्रमें भी तीर्थकी प्रतिष्ठा है। शुद्ध श्राद्धभूमि, देवमन्दिर, होमशाला, वैदिक स्वाध्यायमन्दिर, घरका पवित्र स्थान और गोशाला - ये सभी उत्तम तीर्थ हैं। जहाँ सोमयाजी ब्राह्मण निवास करता हो, वहाँ भी तीर्थकी प्रतिष्ठा है। जहाँ पवित्र बगीचे हों, जहाँ पीपल, ब्रह्मवृक्ष (पाकर ) और बरगदका वृक्ष हो तथा जहाँ अन्य जंगली वृक्षोंका समुदाय हो, उन सब स्थानोंपर तीर्थका निवास है। इस प्रकार इन तीर्थोका वर्णन किया गया। जहाँ पिता और माता रहते हैं, जहाँ पुराणोंका पाठ होता है, जहाँ गुरुका निवास है तथा जहाँ सती स्त्री रहती है वह स्थान निस्संदेह तीर्थ हैं। जहाँ श्रेष्ठ पिता और सुयोग्य पुत्र निवास करते हैं, वहाँ भी तीर्थ है। ये सभी स्थान तीर्थ माने गये हैं।
महाप्राज्ञ ! अब तुम दानके उत्तम पात्रका लक्षण सुनो दान श्रद्धापूर्वक देना चाहिये। उत्तम कुलमें उत्पन्न, वेदाध्ययनमें तत्पर, शान्त, जितेन्द्रिय, दयालु, शुद्ध, बुद्धिमान् ज्ञानवान्, देवपूजापरायण, तपस्वी, विष्णुभक्त, ज्ञानी, धर्मज्ञ, सुशील और पाखण्डियोंके संगसे रहित ब्राह्मण ही दानका श्रेष्ठ पात्र है। ऐसे पात्रको पाकर अवश्य दान देना चाहिये। अब मैं दूसरे दान पात्रोको बताता हूँ। उपर्युक्त गुणोंसे युक्त बहिनके पुत्र ( भानजे) को तथा पुत्रीके पुत्र ( दौहित्र) को भी दानका उत्तम पात्र समझो। इन्हीं भावोंसे युक्त दामाद, गुरु और यशकी