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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
कौस्तुभमणिसे उनकी अपूर्व शोभा हो रही थी वे सर्वदेवमय श्रीहरि समस्त अलङ्कारोंकी शोभासे सम्पन्न अपने श्रीविग्रहकी झाँकी कराकर ऋषिश्रेष्ठ अङ्गसे बोले— 'महाभाग ! मैं तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट हूँ, तुम कोई उत्तम वर माँग लो।'
अङ्गने भगवान्के चरणकमलोंमें बारंबार प्रणाम किया और अत्यन्त हर्षमें भरकर कहा-' - 'देवेश्वर ! मैं आपका दास हूँ; यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो जैसी शोभा स्वर्ग में सम्पूर्ण तेजसे सम्पन्न इन्द्रकी है, वैसी ही शोभा पानेवाला एक सुन्दर पुत्र मुझे देनेकी कृपा करें। वह पुत्र सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करनेवाला होना चाहिये। इतना ही नहीं, वह बालक समस्त देवताओंका
ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! गन्धर्वश्रेष्ठ सुशङ्खने जब सुनीथाको शाप दे दिया, तब वह शाप उसके ऊपर किस प्रकार लागू हुआ ? उसके बाद सुनीथाने कौन-कौन-सा कार्य किया? और उसको कैसा पुत्र प्राप्त हुआ ?
सूतजी बोले- ब्राह्मणो हम पहले बता आये हैं कि सुशङ्खके शाप देनेपर सुनीथा दुःखसे पीड़ित हो अपने पिताके निवासस्थानपर आयी और वहाँ उसने पितासे अपनी सारी करतूतें कह सुनायीं। मृत्युने सब बातें सुनकर अपनी पुत्री सुनीथासे कहा- 'बेटी! तूने बड़ा भारी पाप किया है। तेरा यह कार्य धर्म और तेजका नाश करनेवाला है। काम-क्रोधसे रहित, परम शान्त धर्मवत्सल और परब्रह्ममें स्थित तपस्वीको जो चोट पहुँचाता है, उसके पापात्मा पुत्र होता है तथा उसे उस पापका फल भोगना पड़ता है। वही जितेन्द्रिय और शान्त है, जो मारनेवालेको भी नहीं मारता । किन्तु तूने निर्दोष होनेपर भी उन्हें मारा है; अतः तेरे द्वारा यह महान् पाप हो गया है। पहले तूने ही अपराध किया है; फिर
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
प्रिय, ब्राह्मण-भक्त, दानी, त्रिलोकीका रक्षक, सत्यधर्मका निरन्तर पालन करनेवाला, यजमानोंमें श्रेष्ठ, त्रिभुवनकी शोभा बढ़ानेवाला, अद्वितीय शूरवीर, वेदोंका विद्वान्, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, शान्त, तपस्वी और सर्वशास्त्रविशारद हो । प्रभो! यदि आप वर देनेके लिये उत्सुक हों तो मुझे ऐसा ही पुत्र होनेका वरदान दीजिये।'
भगवान् वासुदेव बोले- महामते ! तुम्हें इन सद्गुणोंसे युक्त उत्तम पुत्रकी प्राप्ति होगी, वह अत्रिवंशका रक्षक और सम्पूर्ण विश्वका पालन करनेवाला होगा। तुम भी मेरे परम धामको प्राप्त होगे।
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सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अङ्गके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
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इस प्रकार वरदान देकर भगवान् श्रीविष्णु अन्तर्धान हो गये।
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उन्होंने भी शाप दे दिया। इसलिये अब तू पुण्यकर्मोका आचरण कर, सदा साधु पुरुषोंके सङ्गमें रहकर जीवन व्यतीत कर प्रतिदिन योग, ध्यान और दानके द्वारा काल यापन करती रह ।
बाले ! सत्सङ्ग महान् पुण्यदायक और परम कल्याणकारक होता है। सत्सङ्गका जो गुण है, उसके विषयमें एक सुन्दर दृष्टान्त देख जल एक सद्वस्तु है; उसके स्पर्शसे, उसमें स्नान करनेसे उसे पीनेसे तथा उसका दर्शन करनेसे भी बाहर और भीतरके दोष धुल जानेके कारण मुनिलोग सिद्धि प्राप्त करते हैं। तथा समस्त चराचर प्राणी भी जल पीते रहनेसे दीर्घायु होते हैं। [इसी प्रकार संतोंके सङ्गसे मनुष्य शुद्ध एवं सफलमनोरथ होते हैं।] पुत्री ! सत्सङ्गसे मनुष्य संतोषी, मृदुगामी, सबका प्रिय करनेवाला, शुद्ध, सरस, पुण्यबलसे सम्पन्न, शारीरिक और मानसिक मलको दूर करनेवाला, शान्तस्वभाव तथा सबको सुख देनेवाला होता है जैसे सुवर्ण अनिके सम्पर्क में आनेपर मैल त्याग देता है, उसी प्रकार मनुष्य संतोंके सङ्गसे पापका