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भूमिखण्ड ] .
. छपवेषधारी पुरुषद्वारा जैन-धर्म-वर्णन और वेनकी पापमें प्रवृत्ति •
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रहता है। अन्तकाल आनेपर वायुरूप आत्मा शरीर समुद्र-सभी जलके आश्रय हैं, पृथ्वीको धारण छोड़कर चला जाता है और पञ्चतत्त्व पाँचों भूतोंमें मिल करनेवाले पर्वत भी केवल पत्थरकी राशि हैं, इनमें तीर्थ जाते हैं। फिर मोहसे मुग्ध मनुष्य परस्पर मिलकर मरे नामकी कोई वस्तु नहीं है। यदि समुद्र आदिमें मान हुए जीवके लिये श्राद्ध आदि पारलौकिक कृत्य करते हैं। करनेसे सिद्धि मिलती है तो मछलियोंको सबसे पहले मोहवश क्षयाह तिथिको पितरोंका तर्पण करते हैं। भला, सिद्ध होना चाहिये; पर ऐसा नहीं देखा जाता । राजेन्द्र ! मरा हुआ मनुष्य कहाँ रहता है? किस रूपमें आकर एकमात्र भगवान् जिन ही सर्वमय है, उनसे बढ़कर न श्राद्ध आदिका उपभोग करता है ? मिष्टान्न खाकर तो कोई धर्म है न तीर्थ । संसारमें जिन ही सर्वश्रेष्ठ है। ब्राह्मणलोग तृप्त होते हैं। [मृतात्माको क्या मिलता अतः उन्हींका ध्यान करो, इससे तुम्हें नित्य सुखकी है?] इसी प्रकार दानकी भी आवश्यकता नहीं जान प्राप्ति होगी। पड़ती । दान क्यों दिया जाता है ? दान देना उत्कृष्ट कर्म इस प्रकार उस पुरुषने वेद, दान, पुण्य तथा नहीं समझना चाहिये। यदि अत्रका भोजन किया जाय यज्ञरूप समस्त धर्मोकी निन्दा करके अङ्ग-कुमार राजा तो इसीमें उसकी सार्थकता है। यदि दान ही देना हो तो वेनको पापके भावोद्वारा बहुत कुछ समझाया-बुझाया। दयाका दान देना चाहिये, दयापरायण होकर प्रतिदिन उसके इस प्रकार समझानेपर वेनके हृदयमें पापभावका जीवोंकी रक्षा करनी चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष उदय हो गया। वेन उसकी बातोंसे मोहित हो गया। चाण्डाल हो या शूद्र, उसे ब्राह्मण ही कहा गया है। उसने उसके चरणोंमें प्रणाम करके वैदिक धर्म तथा दानका भी कोई फल नहीं है, इसलिये दान नहीं देना सत्य-धर्म आदिकी क्रियाओंको त्याग दिया। पापात्मा चाहिये। जैसा श्राद्ध, वैसा दान; दोनोंका एक ही उद्देश्य वेनके शासनसे संसार पापमय हो गया-उसमें सब है। केवल भगवान् जिनका बताया हआ धर्म ही भोग तरहके पाप होने लगे। वेनने वेद, यज्ञ और उत्तम तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है । मैं तुम्हारे सामने उसीका धर्मशास्त्रोंका अध्ययन बंद करा दिया। उसके शासनमें वर्णन करता हूँ। वह बहुत पुण्यदायक है। पहले शान्त- ब्राह्मणलोग न दान करने पाते थे न स्वाध्याय। इस चित्तसे सबपर दया करनी चाहिये। फिर हृदयसे- प्रकार धर्मका सर्वथा लोप हो गया और सब ओर महान् मनके शुद्ध भावसे चराचरस्वरूप एकमात्र जिनकी पाप छा गया । वेन अपने पिता अङ्गके मना करनेपर भी आराधना करनी चाहिये। उन्हींको नमस्कार करना उचित उनकी आज्ञाके विपरीत ही आचरण करता था। वह है। नृपश्रेष्ठ वेन ! माता-पिताके चरणोंमें भी कभी दुरात्मा न पिताके चरणोंमें प्रणाम करता था न माताके। मस्तक नहीं झुकाना चाहिये; फिर औरोंकी तो बात ही वह पुण्य, तीर्थ-स्नान और दान आदि भी नहीं करता क्या है?
था। उसके महायशस्वी पिताने अपने भाव और वेनने पूछा-ये ब्राह्मण तथा आचार्यगण गङ्गा स्वरूपपर बहुत कालन्तक विचार किया, किन्तु किसी आदि नदियोंको पुण्यतीर्थ बतलाते हैं। इनका कहना है, तरह उनकी समझमें यह बात नहीं आयी कि वेन पापी ये तीर्थ महान् पुण्य प्रदान करनेवाले हैं। इसमें कहांतक कैसे हो गया। सत्य है, यह बतानेकी कृपा कीजिये।
- तदनन्तर एक दिन सप्तर्षि अङ्ग-कुमार वेनके पास जिन बोला-महाराज ! आकाशसे बादल एक आये और उसे आश्वासन देते हुए बोले-'वेन ! ही समय जो पानी बरसाते हैं, वह पृथ्वी और पर्वत- दुःसाहस न करो, तुम यहाँ समस्त प्रजाके रक्षक बनाये सभी स्थानोंमें गिरता है। वही बहकर नदियोंमें एकत्रित गये हो; यह सारा जगत् तुमपर ही अवलम्बित है, होता है और वहाँसे सर्वत्र जाता है। नदियाँ तो जल धर्माधर्मरूप सम्पूर्ण विश्वका भार तुम्हारे ही ऊपर है। बहानेवाली हैं ही, उनमें तीर्थ कैसा। सरोवर और अतः पाप-कर्म छोड़कर धर्मका आचरण करो।'