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भूमिखण्ड ]
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• राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन.
दुराचारीका वध कर डालनेपर सब लोग सुखसे जी सकें, तथा पुण्यदर्शी साधु पुरुषोंको सुख मिलता हो तो एक पापिष्ठ पुरुषका विनाश करना कर्तव्य माना गया है। वसुधे ! तुमने भी प्रजाके सम्पूर्ण स्वार्थीका विनाश किया है। इस समय जितने भी बीज थे, उन सबको तुम पचा गयीं। बीजोंको हड़पकर स्वयं तो स्थिर हो गयीं और प्रजाको मार रही हो। ऐसी दशामें [मेरे हाथसे बचकर ] अब कहाँ जाओगी। वसुन्धरे ! संसारके हितके लिये मेरा यह कार्य उत्तम ही माना जायगा। तुमने मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन किया है, इसलिये इन तीखे बाणोंसे मारकर मैं तुम्हें मौत के घाट उतार दूँगा। तुम्हारे न रहनेपर मैं त्रिलोकीमें रहनेवाली पावन प्रजाको अपने ही तेज और धर्मके बलसे धारण करूँगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। वसुन्धरे ! मेरा शासन धर्मके अनुकूल है, अतः इसे मानकर मेरी आज्ञासे तुम प्रजाके जीवनकी सदा ही रक्षा करो। भद्रे ! यदि इस प्रकार आज ही मेरी आज्ञा मान लोगी तो मैं प्रसन्न होकर सदा तुम्हारी रखवाली करूँगा ।
पृथ्वी देवी गौके रूपमें खड़ी थीं। उनका शरीर बाणोंसे आच्छादित हो रहा था। उन्होंने धर्मात्मा और परम बुद्धिमान् राजा पृथुसे कहा - 'महाराज ! तुम्हारी आज्ञा सत्य और पुण्यसे युक्त है। अतः प्रजाके लिये मैं उसका विशेषरूपसे पालन करूँगी। राजेन्द्र ! तुम स्वयं ही कोई उपाय सोचो, जिससे तुम्हारे सत्यका पालन हो सके और तुम इन प्रजाओंको भी धारण कर सको। मैं भी जिस प्रकार समूची प्रजाकी वृद्धि कर सकूँ — ऐसा कोई उपाय बताओ। महाराज ! मेरे शरीरमें तुम्हारे उत्तम बाण धँसे हुए हैं, उन्हें निकाल दो और सब ओरसे मुझे समतल बना दो, जिससे मेरे भीतर दुग्ध स्थिर रह सके।'
सूतजी कहते हैं - ब्राह्मणो! पृथ्वीकी बात सुनकर राजा पृथुने अपने धनुषके अग्रभागसे विभिन्न रूपवाले भारी-भारी पर्वतोंको उखाड़ डाला और भूमिको समतल बना दिया। राजकुमार पृथुने पृथ्वीके शरीरसे अपने बाणोंको स्वयं ही निकाल लिया। उनके आविर्भावसे पहले केवल प्रजाओंकी ही उत्पत्ति हुई सं०प०पु० ९
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थी। कोई सच्चा राजा नहीं हुआ था। उन दिनों यह सारी प्रजा कहीं भूमिमें गुफा बनाकर, कहीं पर्वतपर, कहीं नदीके किनारे, जंगली झाड़ियोंमें, सम्पूर्ण तीर्थोंमें तथा समुद्र के किनारोंपर निवास करती थी। सब लोग पुण्यकर्मोंमें लगे रहते थे। फल, फूल और मधु—यही उनका आहार था। वेनकुमार पृथुने प्रजाके इस कष्टको देखा और उसे दूर करनेके लिये स्वायम्भुव मनुको बछड़ा तथा अपने हाथको ही दुग्धपात्र बनाकर पृथ्वीसे सब प्रकारके धान्य और गुणकारी अन्नमय दूधका दोहन किया। सुधाके समान लाभ पहुँचानेवाले उस पवित्र अन्नसे प्रजा पितरों तथा ब्रह्मा आदि देवताओंका यजन पूजन करने लगी। द्विजवरो! उस समयकी सारी प्रजा पुण्यकर्ममें संलग्न रहती थी; अतः देवताओं, पितरों, विशेषतः ब्राह्मणों और अतिथियोंको अन्न देकर पश्चात् स्वयं भोजन करती थी। उसी अन्नसे अन्यान्य यज्ञोंका अनुष्ठान करके वह देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णुका यजन और तर्पण करती तथा उसी अन्नके द्वारा सम्पूर्ण देवता तृप्त होते थे। फिर श्रीभगवान्की प्रेरणासे मेघ पानी बरसाता और उससे पवित्र अन्न आदि उत्पन्न होता था ।
तदनन्तर समस्त ऋषियों, महामना ब्राह्मणों तथा सत्यवादी देवताओंने भी इस पृथ्वीका दोहन किया। अब मैं यह बताता हूँ कि पितर आदिने किस प्रकार बछड़ोंकी कल्पना करके पूर्वकालमें वसुधाको दुहा था। द्विजोत्तमो ! पितरोंने चाँदीका दोहन पात्र बनाकर यमको बछड़ा बनाया, अन्तकने दुहनेवाले ग्वालेका काम किया और 'स्वधा' रूपी दुग्धको दुहा। इसके बाद सर्पों और नागोने तक्षकको बछड़ा बनाकर तूंबीका पात्र हाथमें ले विषरूपी दूध दुहा। वे महाबली और महाकाय भयानक सर्प उस विषसे ही जीवन धारण करते हैं। विष ही उनका आधार, विष ही आचार, विष ही बल और विष ही पराक्रम है। इसी प्रकार समस्त असुरों और दानवोंने भी अनके अनुरूप लोहेका पात्र बनाकर सम्पूर्ण कामनाओंके साधनभूत मायामय दूधका दोहन किया, जो उनके समस्त शत्रुओंका विनाश करनेवाला है। वही उनका बल और पुरुषार्थ है, उसीसे दानव जीवन धारण