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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
रहते थे। इस प्रकार क्रमशः हजार, लाख, करोड़, आपके दर्शनसे तीर्थसेवनका फल प्राप्त हो गया।' यह अरब, खरब और दस खरब सोनेकी मुहरें तुम्हें प्राप्त हो कहकर तुमने उन्हें ठहरनेके लिये परम पवित्र गोशालाका गयीं; फिर भी तृष्णा तुम्हारा पिंड नहीं छोड़ती थी। वह स्थान दिखलाया और वहाँ ठहराकर उनके शरीरकी सेवा सदा बढ़ती ही रहती थी। तुमने कभी दान, होम या करके दोनों पैरोंको भी दबाया। फिर उनके चरणोंको धनका उपभोग भी नहीं किया। जितना कमाया, सब जलसे धोकर चरणोदकसे अपने मस्तकका अभिषेक जमीनके अंदर गाड़ दिया। तुम्हारे पुत्रोंको भी उस गड़े किया। तत्पश्चात् तुरंत ही दूध, दही, घी और मटेके साथ हुए धनका पता न था। तुम्हारे हदयमें तृष्णाकी आग उन ब्राह्मण-देवताको अन्न अर्पण किया। प्रज्वलित होती रहती थी। उसीके दुःखसे तुम्हें कभी महामते ! इस प्रकार अपनी स्त्रीसहित सेवा करके सुख नहीं मिलता था। तृष्णाकी आगसे संतप्त होकर तुम तुमने ब्राह्मणको बहुत सन्तुष्ट कर लिया। दूसरे दिन हाहाकार मचाते और अचेत रहते थे। विप्रवर ! इस प्रातःकाल अत्यन्त शुभकारक पुण्य दिवस आया। उस प्रकार मोहमें पड़े-पड़े ही तुम कालके अधीन हो गये। दिन शुद्ध आषाढ मासकी शुक्ला द्वादशी थी, जो सब स्त्री और पुत्र पूछते ही रह गये; किन्तु तुमने उन्हें न तो पापोंका नाश करनेवाली है; उसी तिथिको भगवान् उस धनका पता बताया और न उन्हें दिया ही। तुम प्राण श्रीविष्णु योगनिद्राका आश्रय लेते हैं। वह तिथि आनेपर त्यागकर यमलोकमें चले गये। इस प्रकार मैंने तुम्हारे बुद्धिमान् और विद्वान् पुरुष घरके सारे काम छोड़कर पूर्वजन्मका सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न हो गये। गीत और _ विप्रवर ! उसी कर्मके कारण तुम निर्धन और दरिद्र मङ्गलवाद्योंके द्वारा परम उत्सव मनाने लगे। समस्त हो। जिसके ऊपर भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं, ब्राह्मण वेदके सूक्तों और मङ्गलमय स्तोत्रोद्वारा भगवानकी उसीके घरमें सदा सुशील, ज्ञानी और सत्यधर्मपरायण स्तुति करने लगे। ऐसे महोत्सवका अवसर पाकर वे श्रेष्ठ पुत्र होते हैं। संसारमें जिसको भक्तिमान् श्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्ति ब्राह्मण उस दिन वहीं ठहर गये। उन्होंने एकादशीका व्रत हुई है, वह भगवानका कृपापात्र है। भगवान् श्रीविष्णुकी किया और उसका माहात्म्य भी पढ़कर सुनाया। तुमने कृपाके बिना कोई भी स्त्री, पुत्र, उत्तम जन्म तथा उत्तम अपनी स्त्री और पुत्रोंके साथ एकादशीसे होनेवाले उत्तम कुलको और श्रीविष्णुके परम धामको नहीं पा सकता। पुण्यका वर्णन सुना । उस महापुण्यमय प्रसङ्गको सुनकर
सोमशर्माने पूछा-ज्ञान-विज्ञानके पण्डित स्त्री और पुत्रोंसे प्रेरित हो श्राह्मणके संसर्गसे तुमने भी विप्रवर वसिष्ठजी ! यदि ऐसी बात है तो मुझे ब्राह्मण- एकादशी-व्रतका आचरण किया। स्त्री और पुत्रोंके साथ वंशमें जन्म कैसे मिला ? इसका सारा कारण बतलाइये। जाकर प्रातःकाल स्नान किया और प्रसन्न मनसे गन्ध-पुष्प
वसिष्ठजी बोले-ब्रह्मन् ! पूर्वजन्ममें तुम्हारे द्वारा आदि पवित्र उपचारों तथा सब प्रकारके नैवेद्योंद्वारा एक धर्मसम्बन्धी कार्य भी बन गया था, उसे बताता हूँ; भगवान् श्रीमधुसूदनकी पूजा की। फिर नृत्य और गीत उन दिनों एक निष्पाप, सदाचारी, अच्छे विद्वान्, आदिके द्वारा उत्सव मनाते हुए रात्रिमें जागरण किया। विष्णुभक्त और धर्मात्मा ब्राह्मण थे, जो तीर्थ-यात्राके तत्पश्चात् भगवानको स्नान कराकर भक्तिके साथ बारंबार व्याजसे समूची पृथ्वीपर अकेले विचरण किया करते उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया और महात्मा ब्राह्मणके थे। एक दिन वे महामुनि घूमते-घामते तुम्हारे घरपर दिये हुए भगवान्के चरणोदकका पान किया, जो परम आये। द्विजश्रेष्ठ ! उस समय उन्होंने अपने ठहरनेके शान्ति प्रदान करनेवाला है। इसके बाद ग्राह्मणको लिये तुमसे कोई स्थान माँगा। तुम बड़ी प्रसन्नताके साथ भक्तिपूर्वक प्रणाम करके तुमने उन्हें उत्तम दक्षिणा दी और बोले-'विद्वन् ! अहा, आज मैं धन्य हो गया। आज पुत्र एवं पत्नी आदिके साथ व्रतका पारण किया। इस मैंने पावन तीर्थकी यात्रा कर ली तथा इस समय मुझे प्रकार भक्ति और सद्भावके द्वारा तुमने ब्राह्मणको