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भूमिखण्ड]
• सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन .
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करना चाहिये। इससे मनुष्यमें चेतनाका विकास होता... अनुष्ठानसे ही स्त्री, पुत्र और धन-धान्यकी प्राप्ति होती है। अब मैं शुश्रूषाका स्वरूप बतलाती हूँ। मन, वाणी है।' उनके उपदेशसे वेदशर्मान धर्मका अनुष्ठान पूरा
और शरीरसे गुरुके कार्य-साधनमें लगे रहना शुश्रूषा है। किया। उस धर्मसे उन्हें महान् सुख और सुयोग्य पुत्रकी द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने आपसे धर्मका साङ्गोपाङ्ग प्राप्ति हुई। उन सिद्ध महात्माके सत्सङ्गसे ही धर्मके वर्णन किया । जो मनुष्य ऐसे धर्ममें सदा संलग्न रहता है, विषयमें मेरी बुद्धिका ऐसा निश्चय हुआ है। उसे संसारमें पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता—यह मैं सोमशर्माने पूछा-प्रिये ! धर्मसे कैसी मृत्यु आपसे सच-सच कह रही हूँ। महाप्राज्ञ ! यह जानकर और कैसा जन्म होता है? शास्त्रके अनुसार उस मृत्यु आप धर्मका अनुसरण करें।
.. और जन्मका लक्षण जैसा निश्चित किया गया हो, वह सोमशर्माने पूछा-देवि ! तुम्हारा कल्याण हो, सब मुझे बताओ। , तुम इस प्रकार धर्मकी परम पुण्यमयी उत्तम व्याख्या कैसे सुमना बोली-प्राणनाथ ! जिसने सत्य, शौच, जानती हो? किसके मुँहसे तुमने यह सब सुना है? क्षमा, शान्ति, तीर्थ और पुण्य आदिके द्वारा धर्मका
सुमना बोली-महामते! मेरे पिताका जन्म पालन किया है, उसकी मृत्युका लक्षण बतलाती हूँ। भार्गव-वंशमें हुआ है। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण धर्मात्मा पुरुषको मृत्युके समय कोई रोग नहीं होता, हैं। उनका नाम है महर्षि च्यवन । मैं उन्हींकी कन्या हूँ। उसके शरीरमें कोई पीड़ा नहीं होती; श्रम, ग्लानि, स्वेद वे मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मानते थे। जिस-जिस और भ्रान्ति आदि उपद्रव भी नहीं होते। गीत-ज्ञानतीर्थ, मुनि-समाज अथवा देवालयमें वे जाते, मैं भी विशारद दिव्यरूपधारी गन्धर्व और वेदपाठी ब्राह्मण उनके साथ वहाँ जाया करती थी। मेरे पिताजीके एक उसके पास आकर मनोहर स्तुति किया करते हैं। वह मित्र हैं, जिनका नाम है वेदशर्मा । कौशिकवंशमें उनका स्वस्थ रहकर सुखदायक आसनपर विराजमान होता है। जन्म हुआ है । एक दिन वे घूमते-घामते पिताजीके पास अथवा देवपूजामें बैठा होता है। ऐसा भी हुआ करता है आये। उस समय वे बहुत दुःखी थे और बारंबार कि धर्मपरायण बुद्धिमान् पुरुष [मृत्युकालमें] नानके चिन्तामग्न हो जाते थे। तब उनसे मेरे पिताने लिये तीर्थ-स्थानमें पहुँचा हो। अग्निहोत्र-गृह, गोशाला, कहा-'सुव्रत ! मालूम होता है आप किसी दुःखसे देवमन्दिर, बगीचा, पोखरा, पीपल या बड़का वृक्ष तथा संतप्त है। आपको दुःख कैसे प्राप्त हुआ है, मुझे इसका पाकर अथवा बेलका पेड़-ये मृत्युके लिये पवित्र कारण बतलाइये।' यह सुनकर वेदशर्माने कहा-'मेरी स्थान माने गये हैं। धर्मात्मा पुरुष धर्मराजके दूतोंको स्त्री बड़ी साध्वी और पतिव्रता है, किन्तु अबतक उसे प्रत्यक्ष देखता है। वे नेहसे युक्त और मुसकराते हुए कोई पुत्र नहीं हुआ। मेरा वंश चलानेवाला कोई नहीं है। दिखायी देते हैं। वह मरनेवाला जीव स्वप्न, मोह तथा यही मेरे दुःखका कारण है; आपने पूछा था, इसलिये केशके अधीन नहीं होता। धर्मराजके दूत उससे कहते बताया है।'
हैं-'महाभाग ! परम बुद्धिमान् धर्मराज आपको बुला इसी बीचमें कोई सिद्ध पुरुष मेरे पिताके आश्रमपर रहे हैं।' दूतोंकी यह बात सुनकर उसे मोह और सन्देह आये। पिताजी और वेदशर्मा दोनोंने खड़े होकर नहीं होता। उसका चित्त प्रसन्न हो जाता है। वह भक्तिपूर्वक सिद्धका पूजन किया। भोजन आदि उपचारों ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न हो भगवान् श्रीविष्णुका स्मरण और मीठे वचनोंसे उनका स्वागत किया। फिर आपने करता है और संतुष्ट एवं हृष्टचित्त होकर उन दूतोंके साथ पहले जिस प्रकार प्रश्न किया था, उसी प्रकार उन दोनोंने चला जाता है। भी सिद्धसे अपने मनकी बात पूछी । तब धर्मात्मा सिद्धने . सोमशर्माने पूछा-भद्रे ! पापियोंकी मृत्यु किन मेरे पिता और उनके मित्रसे इस प्रकार कहा–'धर्मके लक्षणोंसे युक्त होती है, इसका विस्तारके साथ वर्णन करो।