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भूमिखण्ड ]
सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें सुमना और शिवशर्माका संवाद •
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देखता ही नहीं। क्रूर स्वभाव और निष्ठुर आकृति बनाये अपने स्वजनोंको सदा कठोर बातें सुनाया करता है। प्रतिदिन मीठी-मीठी वस्तुएँ स्वयं खाता है। घरमें रहते हुए धनका बलपूर्वक उपभोग करता है और रोकनेपर कुपित हो जाता है।
विप्रवर! अब मैं आपके सामने शत्रु स्वभाववाले पुत्रका वर्णन करती हूँ। वह बाल्यावस्थासे ही सदा शत्रुओंका-सा बर्ताव करता है। खेल-कूदमें भी पिता माताको मार-मारकर भागता है और बारंबार हँसा करता है। क्रोधयुक्त स्वभावको लेकर ही बड़ा होता है और सदा वैरके काममें लगा रहता है। वह प्रतिदिन पिता और माताकी निन्दा करता है। फिर विवाह सम्बन्ध हो जानेपर नाना प्रकारसे धनका अपव्यय करता है। 'घर और खेत आदि सब मेरा ही है' [तुमलोग कौन हो मेरा हाथ रोकनेवाले ?] यों कहकर पिता और माताको प्रतिदिन पीटता रहता है। उनकी मृत्युके पश्चात् न वह श्राद्ध करता है और न कभी दान ही देता है। ऐसे बहुतेरे पुत्र इस पृथ्वीपर उत्पन्न होते रहते हैं।
अब मैं उस पुत्रका वर्णन करती हूँ, जिसके द्वारा प्रिय वस्तुकी प्राप्ति होती है। वैसा बालक बचपनसे ही माता- पिताका प्रिय करता है। वयस्क (बड़ा ) होनेपर भी उनके प्रियसाधनमें लगा रहता है और सदा अपनी भक्तिसे माता- पिताको सन्तुष्ट रखता है। स्नेहसे, मीठी वाणीसे तथा प्रिय लगनेवाली बातचीतसे उन्हें प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करता है। माता-पिताकी मृत्युके पश्चात् सम्पूर्ण श्राद्धकर्म और पिण्डदान आदिका कार्य करता है तथा उनकी सद्गतिके लिये तीर्थयात्रा भी करता है।
प्रियतम ! अब इस समय आपके सामने उदासीन पुत्रका वर्णन करती हूँ-विप्रवर! उदासीन बालक सदा उदासीन भावसे ही रहता है। वह न कुछ देता है और न लेता है। न रुष्ट होता है और न सन्तुष्ट। इस प्रकार मैंने पुत्रोंके सम्बन्धमें सब कुछ बता दिया। पुत्रोंकी ऐसी ही गति है। जैसे पुत्र होते हैं, वैसे ही पिता, माता, पत्नी, बन्धु बान्धव तथा भृत्य आदि अन्य लोग भी बताये गये हैं। [ इनमें भी शत्रु मित्र और उदासीन आदि भेद होते
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हैं।] मनुष्योंकी तो बात ही क्या है, पशु-घोड़े, हाथी, भैंस आदि भी ऐसे ही होते हैं। नौकरोंकी भी यही स्थिति है; ये सब ऋणके सम्बन्धसे ही प्राप्त होते हैं।
हम दोनोंने पूर्वजन्ममें न तो किसीसे ऋण लिया है और न किसीकी धरोहर ही हड़पी है। इतना ही नहीं, हमने किसीके साथ वैर भी नहीं किया है। [इसीलिये हमें धन और पुत्र आदि किसी भी वस्तुकी प्राप्ति नहीं हुई है।] यह जानकर आप शान्ति धारण करें और व्यर्थकी चिन्ता छोड़ दें। आपने किसीको दान नहीं दिया है, तब धन कैसे आये। अतः प्राणनाथ ! दुःखी न होइये। द्विजश्रेष्ठ ! जिस पुरुषको धन मिलना निश्चित है, उसके हाथमें अनायास ही धन आ जाता है। मनुष्य उस धनकी बड़े यनसे रक्षा करता है। किन्तु जब वह जानेको होता है, तब चला ही जाता है। ऐसा समझकर आप शान्त हो जाइये। निरर्थक चिन्ता छोड़िये महान् मोहसे मूढ़ (विवेकशून्य) हुए मानव पापमें आसक्तचित्त होकर कहने लगते हैं कि 'यह घर, यह पुत्र और ये स्त्रियाँ मेरी ही हैं।' किन्तु प्राणनाथ ! संसारका यह बन्धन सदा झूठा ही दिखायी देता है।
सोमशर्मा बोले – कल्याणी! तुम ठीक कहती हो; तुम्हारा यह वचन सब प्रकारके सन्देहोंका नाश करनेवाला है तथापि सत्यके ज्ञाता साधु पुरुष वंशकी इच्छा रखते हैं। प्रिये! मुझे पुत्रकी चिन्ता है; जीमें आता है— जिस किसी उपायसे सम्भव हो, मैं पुत्र अवश्य उत्पन्न करूँ।
सुमनाने कहा - महाभाग ! एक ही विद्वान् पुत्र श्रेष्ठ है, बहुत से गुणहीन पुत्रोंको लेकर क्या करना है ? एक ही पुत्र कुलका उद्धार करता है; दूसरे तो केवल कष्ट देनेवाले होते हैं। पुण्यसे ही पुत्र प्राप्त होता है, पुण्यसे ही अच्छा कुल मिलता है तथा पुण्यसे ही उत्तम गर्भकी प्राप्ति होती है। इसलिये आप पुण्यका अनुष्ठान कीजिये प्राणनाथ! पुण्यकर्म करनेवाले मनुष्य ही सुख राशिका उपभोग करते हैं।
सोमशर्मा बोले- भद्रे मुझे पुण्यका अनुष्ठान बताओ उत्तम पुण्य कैसा होता है ? पुण्यके लक्षणोंका वर्णन करो।
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