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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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जानेवाले लोग भयभीत और दुःखी हो जाते हैं। जिनकी उनकी मृत्यु जल्दी होती है। सत्ययुगमें देवजातिके दृष्टि दूरतक नहीं जाती, ऐसे लोग हाथी माने जाते मनुष्य ही इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए थे। दैत्य अथवा अन्य हैं। इसी क्रमसे मनुष्योंमें अन्य पशुओंका विवेक कर जातिके नहीं। त्रेतामें एक चौथाई, द्वापरमें आधा तथा लेना चाहिये।
कलियुगकी सन्ध्यामें समूचा भूमण्डल दैत्य आदिसे अब हम नररूपमें स्थित देवताओंका लक्षण व्याप्त हो जाता है। देवता और असुर जातिके मनुष्योंका बतलाते हैं। जो द्विज, देवता, अतिथि, गुरु, साधु और समान संख्यामें जन्म होनेके कारण ही महाभारतका युद्ध तपस्वियोंके पूजनमें संलग्न रहनेवाला, नित्य छिड़नेवाला है। दुर्योधनके योद्धा और सेना आदि जितने तपस्यापरायण, धर्मशास्त्र एवं नीतिमें स्थित, क्षमाशील, भी सहायक हैं, वे दैत्य आदि ही हैं। कर्ण आदि वीर क्रोधजयी, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, लोभहीन, प्रिय सूर्य आदिके अंशसे उत्पन्न हुए हैं। गङ्गानन्दन भीष्म बोलनेवाला, शान्त धर्मशास्त्रप्रेमी, दयालु, लोकप्रिय, वसुओंमें प्रधान हैं। आचार्य द्रोण देवमुनि बृहस्पतिके मिष्टभाषी, वाणीपर अधिकार रखनेवाला, सब कार्योंमें अंशसे प्रकट हुए हैं। नन्द-नन्दन श्रीकृष्णके रूपमें दक्ष, गुणवान्, महाबली, साक्षर, विद्वान्, आत्मविद्या साक्षात् भगवान् श्रीविष्णु है। विदुर साक्षात् धर्म हैं। आदिके लिये उपयोगी कार्योंमें संलग्न, घी और गायके गान्धारी, द्रौपदी और कुन्ती-इनके रूपमें देवियाँ ही दूध-दही आदिमें तथा निरामिष भोजनमें रुचि रखने- धरातलपर अवतीर्ण हुई हैं। वाला, अतिथिको दान देने और पार्वण आदि कर्मोमें जो मनुष्य जितेन्द्रिय, दुर्गुणोंसे मुक्त तथा प्रवृत्त रहनेवाला है, जिसका समय स्नान-दान आदि शुभ नीतिशास्त्रके तत्त्वको जाननेवाला है और ऐसे ही नाना कर्म, व्रत, यज्ञ, देवपूजन तथा स्वाध्याय आदिमें ही प्रकारके उत्तम गुणोंसे सन्तुष्ट दिखायी देता है, वह व्यतीत होता है, कोई भी दिन व्यर्थ नहीं जाने पाता, वही देवस्वरूप है। स्वर्गका निवासी हो या मनुष्यलोककामनुष्य देवता है। यही मनुष्योंका सनातन सदाचार है। जो पुराण और तन्त्रमें बताये हुए पुण्यकर्मोका स्वयं श्रेष्ठ मुनियोंने मानवोंका आचरण देवताओके ही समान आचरण करता है, वही इस पृथ्वीका उद्धार करनेमें बतलाया है। अन्तर इतना ही है कि देवता सत्त्वगुणमें समर्थ है। जो शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेशका बढ़े-चढ़े होते हैं [इसलिये निर्भय होते हैं, और उपासक है, वह समस्त पितरोंको तारकर इस पृथ्वीका मनुष्योंमें भय अधिक होता है । देवता सदा गम्भीर रहते उद्धार करनेमें समर्थ है। विशेषतः जो वैष्णवको देखकर हैं और मनुष्योंका स्वभाव सर्वदा मृदु होता है। इस प्रसन्न होता और उसकी पूजा करता है, वह सब पापोंसे प्रकार पुण्यविशेषके तारतम्यसे सामान्यतः सभी मुक्त हो इस भूतलका उद्धार कर सकता है। जो ब्राह्मण जातियोंमें विभिन्न स्वभावके मनुष्योंका जन्म होता है; यजन-याजन आदि छः कर्मोंमें संलग्न, सब प्रकारके उनके प्रिय-अप्रिय पदार्थोंको जानकर पुण्य-पाप तथा यज्ञोंमें प्रवृत्त रहनेवाला और सदा धार्मिक उपाख्यान गुण-अवगुणका निश्चय करना चाहिये।
सुनानेका प्रेमी है, वह भी इस पृथ्वीका उद्धार करनेमें __ मनुष्योंमें यदि पति-पलीके अंदर जन्मगत समर्थ है।। संस्कारोंका भेद हो तो उन्हें तनिक भी सुख नहीं मिलता। जो लोग विश्वासघाती, कृतघ्न, व्रतका उल्लङ्घन सालोक्य आदि मुक्तिकी स्थितिमें रहना पड़े अथवा करनेवाले तथा ब्राह्मण और देवताओंके द्वेषी हैं, वे नरकमें, सजातीय संस्कारवालोंमें ही परस्पर प्रेम होता मनुष्य इस पृथ्वीका नाश कर डालते हैं। जो माताहै। शुभ कार्यमें संलग्न रहनेवाले पुण्यात्मा मनुष्योंको पिता, स्त्री, गुरुजन और बालकोंका पोषण नहीं करते, अत्यन्त पुण्यके कारण दीर्घायुकी प्राप्ति होती है तथा जो देवता, ब्राह्मण और राजाओंका धन हर लेते हैं तथा जो दैत्य आदिकी श्रेणीमें गिने जानेवाले पापात्मा मनुष्य हैं, मोक्षशास्त्र में श्रद्धा नहीं रखते, वे मनुष्य भी इस पृथ्वीका