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अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
नहीं गये हैं, वे अंधे और पशुके समान हैं। उनका इस संसारमें जन्म लेना व्यर्थ है। जो गङ्गाजीके नामका कीर्तन नहीं करते, वे नराधम जडके समान हैं। जो लोग श्रद्धाके साथ गङ्गाजीके माहात्म्यका पठन-पाठन करते हैं, वे धीर पुरुष स्वर्गको जाते और पितरों तथा गुरुओंका उद्धार कर देते हैं। जो पुरुष गङ्गाजीकी यात्रा करनेवाले लोगोंको राह- खर्च के लिये अपनी शक्तिके अनुसार धन देता है, उसे भी गङ्गाजीमें स्नान करनेका फल मिलता है। दूसरेके खर्चसे जानेवालेको स्नानका जितना फल मिलता है, उससे दूना फल खर्च देकर भेजनेवालोंको प्राप्त होता है। इच्छासे या अनिच्छासे, किसीके भेजनेसे या दूसरेकी सेवाके मिससे भी जो परम पवित्र गङ्गाजीकी यात्रा करता है, वह देवताओंके लोकमें जाता है।
ब्राह्मणोंने पूछा- व्यासजी ! हमने आपके मुँहसे गङ्गाजीके गुणोंका अत्यन्त पवित्र कीर्तन सुना। अब हम यह जानना चाहते हैं कि गङ्गाजी कैसे इस रूपमें प्रकट हुई, उनका स्वरूप क्या है तथा वे क्यों अत्यन्त पावन मानी जाती हैं।
व्यासजी बोले- द्विजवरो! सुनो, मैं एक परम पवित्र प्राचीन कथा सुनाता हूँ। प्राचीन कालकी बात है, मुनिश्रेष्ठ नारदजीने ब्रह्मलोकमें जाकर त्रिलोकपावन ब्रह्माजीको नमस्कार किया और पूछा- 'तात! आपने ऐसी कौन-सी वस्तु उत्पन्न की है, जो भगवान् शङ्कर और श्रीविष्णुको भी अत्यन्त प्रिय हो तथा जो भूतलपर सब लोगोंका हित करनेके लिये अभीष्ट मानी गयी हो ?'
ब्रह्माजीने कहा- बेटा ! पूर्वकालमें सृष्टि आरम्भ करते समय मैने मूर्तिमती प्रकृतिसे कहा- देवि! तुम सम्पूर्ण लोकोंका आदि कारण बनो। मैं तुमसे ही संसारकी सृष्टि आरम्भ करूँगा।' यह सुनकर परा प्रकृति सात स्वरूपोंमें अभिव्यक्त हुई; गायत्री, वाग्देवी (सरस्वती), सब प्रकारके धन-धान्य प्रदान करनेवाली लक्ष्मी, ज्ञान- विद्यास्वरूपा उमादेवी, शक्तिबीजा तपस्विनी और धर्मद्रवा - ये ही सात परा प्रकृतिके स्वरूप हैं। इनमें गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और वेदसे सारे जगत्की स्थिति है। स्वस्ति, स्वाहा स्वधा और
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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दीक्षा – ये भी गायत्रीसे ही उत्पन्न मानी गयी हैं। अतः यज्ञमें मातृका आदिके साथ सदा ही गायत्रीका उच्चारण करना चाहिये। भारती (सरस्वती) सब लोगोंके मुख और हृदयमें स्थित हैं तथा वे ही समस्त शास्त्रों में धर्मका उपदेश करती हैं। तीसरी प्रकृति लक्ष्मी हैं, जिनसे वस्त्र और आभूषणोंकी राशि प्रकट हुई है। सुख और त्रिभुवनका राज्य भी उन्हींकी देन है। इसीसे वे भगवान् श्रीविष्णुकी प्रियतमा हैं। चौथी प्रकृति उमाके द्वारा ही संसारमें भगवान् शङ्करके स्वरूपका ज्ञान होता है। अतः उमाको ज्ञानकी जननी (ब्रह्मविद्या) समझना चाहिये। वे भगवान् शिवके आधे अङ्गमें निवास करती हैं। शक्तिबीजा नामकी जो पाँचवीं प्रकृति है, वह अत्यन्त उम्र और समूचे विश्वको मोहमें डालनेवाली है। समस्त लोकोंमें वही जगत्का पालन और संहार करती है। [ तपस्विनी तपस्याकी अधिष्ठात्री देवी है।] सातवीं प्रकृति धर्मद्रवा है, जो सब धर्मो में प्रतिष्ठित है । उसे सबसे श्रेष्ठ देखकर मैंने अपने कमण्डलुमें धारण कर लिया। फिर परम प्रभावशाली भगवान् श्रीविष्णुने बलिके यज्ञके समय इसे प्रकट किया। उनके दोनों चरणोंसे सम्पूर्ण महीतल व्याप्त हो गया था। उनमेंसे एक चरण आकाश एवं ब्रह्माण्डको भेदकर मेरे सामने स्थित हुआ। उस समय मैंने कमण्डलुके जलसे उस चरणका पूजन किया। उस चरणको धोकर जब मैं पूजन कर चुका, तब उसका धोवन हेमकूट पर्वतपर गिरा। वहाँसे भगवान् शङ्करके पास पहुँचकर वह जल गङ्गाके रूपमें उनकी जटामें स्थित हुआ। गङ्गा बहुत कालतक उनकी जटामें ही भ्रमण करती रहीं। तत्पश्चात् महाराज भगीरथने भगवान् शङ्करकी आराधना करके गङ्गाको पृथ्वीपर उतारा। वे तीन धाराओंमें प्रकट होकर तीनों लोकोंमें गयीं; इसलिये संसारमें त्रिस्रोताके नामसे विख्यात हुईं। शिव, ब्रह्मा तथा विष्णु — तीनों देवताओंके संयोगसे पवित्र होकर वे त्रिभुवनको पावन करती हैं। भगवती भागीरथीका आश्रय लेकर मनुष्य सम्पूर्ण धर्मोका फल प्राप्त करता है। पाठ, यज्ञ, मन्त्र, होम और देवार्चन आदि समस्त शुभ कर्मोंसे भी जीवको वह गति नहीं