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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
शाश्वत गतिमें स्थित हुए हैं। सत्यसे ही राजा युधिष्ठिर एक महान् भाग्यशाली शूद्र था, जो कभी लोभमें सशरीर स्वर्गमें चले गये।* उन्होंने समस्त शत्रुओंको नहीं पड़ता था। वह साग खाकर, बाजारसे अन्नके दाने जीतकर धर्मके अनुसार लोकका पालन किया । अत्यन्त चुनकर तथा खेतोंसे धानकी बालें बीनकर बड़े दुःखसे दुर्लभ एवं विशुद्ध राजसूय यज्ञका अनुष्ठान किया। वे जीवन-निर्वाह करता था। उसके पास दो फटे-पुराने वस्त्र प्रतिदिन चौरासी हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराते और थे तथा वह अपने हाथोंसे ही सदा पात्रका काम लेता उनकी इच्छाके अनुसार पर्याप्त धन दान करते थे। जब था। उसे कभी किसी वस्तुका लाभ नहीं हुआ, तथापि यह जान लेते कि इनमेंसे प्रत्येक ब्राह्मणकी दरिद्रता दूर वह पराया धन नहीं लेता था। एक दिन मैं उसकी परीक्षा हो चुकी है, तभी उस ब्राह्मण-समुदायको विदा करते करनेके लिये दो नवीन वस्त्र लेकर गया और नदीके थे। यह सब उनके सत्यका ही प्रभाव था। राजा तीरपर एक कोनेमें उन्हें आदरपूर्वक रखकर अन्यत्र जा हरिश्चन्द्र सल्यका आश्रय लेनेसे ही वाहन, परिवार तथा खड़ा हुआ। शूद्रने उन दोनों वस्त्रोंको देखकर भी मनमें अपने विशुद्ध शरीरके साथ सत्यलोकमें प्रतिष्ठित हैं। लोभ नहीं किया और यह समझकर कि ये किसी औरके इनके सिवा और भी बहुत-से राजा, सिद्ध, महर्षि, ज्ञानी पड़े होंगे चुपचाप घर चला गया। तब यह सोचकर कि और यज्ञकर्ता हो चुके हैं, जो कभी सत्यसे विचलित नहीं बहुत थोड़ा लाभ होनेके कारण ही उसने इन वस्त्रोंको हुए। अतः लोकमें जो सत्यपरायण है, वही संसारका नहीं लिया होगा, मैंने गूलरके फलमें सोनेका टुकड़ा उद्धार करनेमें समर्थ होता है। महात्मा तुलाधार डालकर उसे वहीं रख दिया। मगध प्रदेश, नदीका तट सत्यभाषणमें स्थित हैं। सत्य बोलनेके कारण ही इस और कोनेका निर्जन स्थान-ऐसी जगह पहुँचकर उसने जगत्में उनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। उस अद्भुत फलको देखा। उसपर दृष्टि पड़ते ही वह ये तुलाधार कभी झूठ नहीं बोलते । महँगी और सस्ती बोल उठा-'बस, बस; यह तो कोई कृत्रिम विधान सब प्रकारकी वस्तुओंके खरीदने-बेचनेमें ये बड़े दिखायी देता है। इस समय इस फलको ग्रहण कर बुद्धिमान् हैं।
लेनेपर मेरी अलोभवृत्ति नष्ट हो जायगी। इस धनकी विशेषतः साक्षीका सत्य वचन ही उत्तम माना गया रक्षा करनेमें बड़ा कष्ट होता है। यह अहंकारका स्थान है। कितने ही साक्षी सत्यभाषण करके अक्षय स्वर्गको है। जितना ही लाभ होता है, उतना ही लोभ बढ़ता जाता प्राप्त कर चुके हैं। जो वक्ता विद्वान् सभामें पहुँचकर सत्य है। लाभसे ही लोभकी उत्पत्ति होती है। लोभसे ग्रस्त बोलता है, वह ब्रह्माजीके धामको, जो अन्यान्य यज्ञोंद्वारा मनुष्यको सदा ही नरकमें रहना पड़ता है। यदि यह दुर्लभ है, प्राप्त होता है। जो सभामें सत्यभाषण करता है, गुणहीन द्रव्य मेरे घरमें रहेगा तो मेरी स्त्री और पुत्रोंको उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। लोभ और द्वेषवश उन्माद हो जायगा । उन्माद कामजनित विकार है। उससे झूठ बोलनेसे मनुष्य रौरव नरकमें पड़ता है। तुलाधार बुद्धिमें भ्रम हो जाता है, भ्रमसे मोह और अहंकारको सबके साक्षी हैं, वे मनुष्योंमें साक्षात् सूर्य ही हैं। विशेष उत्पत्ति होती है। उनसे क्रोध और लोभका प्रादुर्भाव होता बात यह है कि लोभका परित्याग कर देनेके कारण है। इन सबकी अधिकता होनेपर तपस्याका नाश हो मनुष्य स्वर्गमे देवता होता है।
जायगा। तपस्याका क्षय हो जानेपर चित्तको मोहमें
*सत्येनोदयते सूगे वाति वातस्तथैव च। न लक्षयेत् समुद्रस्तु कूमों या धरणी यथा ॥
सत्येन लोकास्तिष्ठन्ति सर्वे च वसुधाधराः । सत्याप्रष्टोऽथ यः सत्त्वोऽप्यधोवासी भवेधुवम् ॥ सत्यवाचि रतो यस्तु सल्यकार्यरतः सदा । सशरीरेण स्वलोकमागल्याच्युततां व्रजेत् ॥ सत्येन मुनयः सर्वे मां च गत्वा स्थिराः स्थिताः । सत्याद् बुधिष्ठिरो राजा सशरीरो दिवं गतः ॥
(५०।३-६)