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• अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
देवलोकसे तुरंत ही एक पीले रङ्गका सुवर्णमय विमान हाथ गौएँ बेच देते हैं, जो जीवनभर स्नान, सन्ध्या, उतरा, जो परम शोभायमान था। पिशाचोंने उसपर वेद-पाठ, यज्ञानुष्ठान और अक्षरज्ञानसे दूर रहते हैं, जो आरूढ़ होकर स्वर्गलोककी यात्रा की। बेटा ! अनेक लोग जूठे शकोरे आदि और शरीरके मल-मूत्र तीर्थव्रतों और यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी जो अत्यन्त दुर्लभ है, भूमिमें गिराते हैं, वे निस्सन्देह प्रेत होते हैं। जो स्त्रियाँ वही लोक उन्हें आँवलेका भक्षण करने मात्रसे मिल गया। पतिका परित्याग करके दूसरे लोगोंके साथ रहती हैं, वे
कार्तिकेयजीने पूछा-पिताजी ! जब आँवलेके चिरकालतक प्रेतलोकमें निवास करनेके पश्चात् फलका भक्षण करने मात्रसे प्रेत पुण्यात्मा होकर स्वर्गको चाण्डालयोनिमें जन्म लेती हैं। जो विषय और इन्द्रियोंसे चले गये, तब मनुष्य आदि जितने प्राणी हैं, वे भी मोहित होकर पतिको धोखा देकर स्वयं मिठाइयाँ उड़ाती आँवला खानेसे क्यों नहीं तुरंत स्वर्गमें चले जाते? हैं, वे पापाचारिणी स्त्रियाँ चिरकालतक इस पृथ्वीपर प्रेत
महादेवजीने कहा-बेटा ! [स्वर्गकी प्राप्ति तो होती हैं। जो मनुष्य बलपूर्वक दूसरेकी वस्तुएँ लेकर उन्हें उन्हें भी होती है; किन्तु] तुरंत ऐसा न होनेमें एक कारण अपने अधिकारमें कर लेते हैं और अतिथियोंका अनादर है-उनका ज्ञान लुप्त रहता है, वे अपने हित और करते हैं, वे प्रेत होकर नरकमें पड़े रहते हैं। अहितकी बात नहीं जानते। [इसलिये आँवलेके इसलिये जो आँवला खाकर उसके रससे स्नान महत्त्वमें उनकी श्रद्धा नहीं होती।]
करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें जिस घरकी मालकिन सहज ही काबूमें न आने- प्रतिष्ठित होते हैं। अतः सब प्रकारसे प्रयल करके तुम वाली, पवित्रता और संयमसे रहित, गुरुजनोंद्वारा निकाली आँवलेके कल्याणमय फलका सेवन करो। जो इस हुई तथा दुराचारिणी होती है, वहाँ प्रेत रहा करते हैं। जो पवित्र और मङ्गलमय उपाख्यानका प्रतिदिन श्रवण करता कुल और जातिसे नीच, बल और उत्साहसे रहित, बहरे, है, वह सम्पूर्ण पापोंसे शुद्ध होकर भगवान् श्रीविष्णुके दुर्बल और दीन हैं, वे कर्मजनित पिशाच है। जो माता, लोकमें सम्मानित होता है। जो सदा ही लोगोंमें, पिता, गुरु और देवताओंकी निन्दा करते हैं, पाखण्डी और विशेषतः वैष्णवोंमें आँवलेके माहात्म्यका श्रवण कराता वाममार्गी हैं, जो गलेमें फाँसी लगाकर, पानीमें डूबकर, है, वह भगवान् श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता तलवार या छुरा भोंककर अथवा जहर खाकर आत्मघात है-ऐसा पौराणिकोंका कथन है। कर लेते हैं, वे प्रेत होनेके पश्चात् इस लोकमें चाण्डाल कार्तिकेयजीने कहा-प्रभो! रुद्राक्ष और आदि योनियोंके भीतर जन्म ग्रहण करते हैं। जो आँवला-इन दोनों फलोंकी पवित्रताको तो मैं जान माता-पिता आदिसे द्रोह करते, ध्यान और अध्ययनसे गया। अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि कौन-सा ऐसा दूर रहते हैं, व्रत और देवपूजा नहीं करते, मन्त्र और वृक्ष है, जिसका पत्ता और फूल भी मोक्ष प्रदान सानसे हीन रहकर गुरुपत्नी-गमनमें प्रवृत्त होते हैं तथा करनेवाला है। जो दुर्गतिमें पड़ी हुई चाण्डाल आदिकी स्त्रियोंसे समागम महादेवजी बोले-बेटा! सब प्रकारके पत्तों करते हैं, वे भी प्रेत होते है। म्लेच्छोंके देशमें जिनकी और पुष्पोंकी अपेक्षा तुलसी ही श्रेष्ठ मानी गयी है। वह मृत्यु होती है, जो म्लेच्छोंके समान आचरण करते और परम मङ्गलमयी, समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली, स्त्रीके धनसे जीविका चलाते हैं, जिनके द्वारा स्त्रियोंकी शुद्ध, श्रीविष्णुको अत्यन्त प्रिय तथा 'वैष्णवी' नाम रक्षा नहीं होती, वे निःसन्देह प्रेत होते हैं। जो क्षुधासे धारण करनेवाली है। वह सम्पूर्ण लोकमें श्रेष्ठ, शुभ तथा पीड़ित, थके-माँदे, गुणवान् और पुण्यात्मा अतिथिके भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। भगवान् श्रीविष्णुने रूपमें घरपर आये हुए ब्राह्मणको लौटा देते हैं-उसका पूर्वकालमें सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये तुलसीका यथावत् सत्कार नहीं करते, जो गो-भक्षी म्लेच्छोंके वृक्ष रोपा था। तुलसीके पते और पुष्प सब धर्मों में