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. अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
जो रुद्राक्ष धारण करके इस भूतलपर प्राण-त्याग करता करता है, उसके ऊपर भगवान् श्रीविष्णु बहुत सन्तुष्ट है; वह सब देवताओंसे पूजित होकर मेरे रमणीय होते हैं। उतना सन्तोष उन्हें सैकड़ों यज्ञ करनेपर भी नहीं धामको जाता है। जो मृत्युकालमें मस्तकपर एक हो सकता। रुद्राक्षकी माला धारण करता है, वह शैव, वैष्णव, स्कन्द ! योगी, मुनियों तथा ज्ञानियोंको जो गति शाक्त, गणेशोपासक और सूर्योपासक सब कुछ है। जो प्राप्त होती है, वही आँवलेका सेवन करनेवाले मनुष्यको इस प्रसङ्गको पढ़ता-पढ़ाता, सुनता और सुनाता है, वह भी मिलती है। तीर्थोमे वास एवं तीर्थ-यात्रा करनेसे तथा सब पापोंसे मुक्त होकर सुखपूर्वक मोक्ष-लाभ करता है। नाना प्रकारके व्रतोंसे मनुष्यको जो गति प्राप्त होती है,
कार्तिकेयजीने कहा-जगदीश्वर ! मैं अन्यान्य वही आँवलेके फलका सेवन करनेसे भी मिल जाती है। फलोकी पवित्रताके विषयमें भी प्रश्न कर रहा हूँ। सब तात ! प्रत्येक रविवार तथा विशेषतः सप्तमी तिथिको लोगोंके हितके लिये यह बतलाइये कि कौन-कौन-से आँवलेका फल दूरसे ही त्याग देना चाहिये । संक्रान्तिके फल उत्तम हैं।
दिन, शुक्रवारको तथा षष्ठी, प्रतिपदा, नवमी और ईश्वरने कहा-बेटा ! आँवलेका फल समस्त अमावास्याको आँवलेका दूरसे ही परित्याग करना उचित लोकोंमें प्रसिद्ध और परम पवित्र है। उसे लगानेपर स्त्री है। जिस मृतकके मुख, नाक, कान अथवा बालोंमें और पुरुष सभी जन्म-मृत्युके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। आँवलेका फल हो, वह विष्णुलोकको जाता है। यह पवित्र फल भगवान् श्रीविष्णुको प्रसन्न करनेवाला आँवलेके सम्पर्कमात्रसे मृत व्यक्ति भगवद्धामको प्राप्त एवं शुभ माना गया है, इसके भक्षणमात्रसे मनुष्य सब होता है। जो धार्मिक मनुष्य शरीरमें आँवलेका रस पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। आँवला खानेसे आयु बढ़ती है, लगाकर स्रान करता है, उसे पद-पदपर अश्वमेध यज्ञका उसका जल पीनेसे धर्म-सञ्चय होता है और उसके द्वारा फल प्राप्त होता है। उसके दर्शन मात्रसे जितने भी पापी स्नान करनेसे दरिद्रता दूर होती है तथा सब प्रकारके जन्तु हैं, वे भाग जाते हैं तथा कठोर एवं दुष्ट ग्रह ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। कार्तिकेय ! जिस घरमें आँवला सदा पलायन कर जाते हैं। मौजूद रहता है, वहाँ दैत्य और राक्षस नहीं जाते। स्कन्द ! पूर्वकालकी बात है-एक चाण्डाल एकादशीके दिन यदि एक ही आँवला मिल जाय तो शिकार खेलनेके लिये वनमें गया। वहाँ अनेकों मृगों उसके सामने गङ्गा, गया, काशी और पुष्कर आदि तीर्थ और पक्षियोंको मारकर जब वह भूख-प्याससे अत्यन्त कोई विशेष महत्त्व नहीं रखते। जो दोनों पक्षोंकी पीड़ित हो गया, तब सामने ही उसे एक आँवलेका वृक्ष एकादशीको आँवलेसे स्रान करता है, उसके सब पाप दिखायी दिया। उसमें खूब मोटे-मोटे फल लगे थे। नष्ट हो जाते हैं और वह श्रीविष्णुलोकमें सम्मानित होता चाण्डाल सहसा वृक्षके ऊपर चढ़ गया और उसके है। षडानन ! जो आँवलेके रससे सदा अपने केश साफ उत्तम-उत्तम फल खाने लगा। प्रारब्धवश वह वृक्षके करता है, वह पुनः माताके स्तनका दूध नहीं पीता। शिखरसे पृथ्वीपर गिर पड़ा और वेदनासे व्यथित होकर आँवलेका दर्शन, स्पर्श तथा उसके नामका उच्चारण इस लोकसे चल बसा। तदनन्तर सम्पूर्ण प्रेत, राक्षस, करनेसे सन्तुष्ट होकर वरदायक भगवान् श्रीविष्णु भूतगण तथा यमराजके सेवक बड़ी प्रसन्नताके साथ अनुकूल हो जाते हैं। जहाँ आँवलेका फल मौजूद होता वहाँ आये; किन्तु उसे ले न जा सके। यद्यपि वे महान है, वहाँ भगवान् श्रीविष्णु सदा विराजमान रहते हैं तथा बलवान् थे, तथापि उस मृतक चाण्डालकी ओर आँख उस घरमें ब्रह्मा एवं सुस्थिर लक्ष्मीका भी वास होता है। उठाकर देख भी नहीं सकते थे। जब कोई भी उसे इसलिये अपने घरमें आँवला अवश्य रखना चाहिये। पकड़कर ले जा न सका, तब वे अपनी असमर्थता देख जो आँवलेका बना मुरब्बा एवं बहुमूल्य नैवेद्य अर्पण मुनियोंके पास जाकर बोले-'ज्ञानी महर्षियो !