________________
सृष्टिखण्ड ]
•
पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, महिमा और कन्यादानका फल
*********...........................................................................******
तात ! प्राचीन कालकी बात है, मध्यदेशमें एक तुम उसे मिलाकर मेरा हितसाधन करो।
अत्यन्त शोभायमान नगरी थी। उसमें एक पतिव्रता ब्राह्मणी रहती थी, उसका नाम था शैब्या। उसका पति पूर्वजन्मके पापसे कोढ़ी हो गया था। उसके शरीरमें अनेकों घाव हो गये थे, जो बराबर बहते रहते थे। शैब्या अपने ऐसे पतिकी सेवामें सदा संलग्न रहती थी। पतिके मनमें जो-जो इच्छा होती, उसे वह अपनी शक्तिके अनुसार अवश्य पूर्ण करती थी। प्रतिदिन देवताकी भाँति स्वामीकी पूजा करती और दोषबुद्धि त्यागकर उसके प्रति विशेष स्नेह रखती थी। एक दिन उसके पतिने सड़कसे जाती हुई एक परम सुन्दरी वेश्याको देखा। उसपर दृष्टि पड़ते ही वह अत्यन्त मोहके वशीभूत हो गया। उसकी चेतनापर कामदेवने पूरा अधिकार कर लिया। वह दीर्घ कालतक लम्बी साँस खींचता रहा और अन्तमें बहुत उदास हो गया। उसका उच्छ्वास सुनकर पतिव्रता घरसे बाहर आयी और अपने पतिसे पूछने लगी- 'नाथ! आप उदास क्यों हो गये ? आपने लम्बी साँस कैसे खींची ? प्रभो! आपको जो प्रिय हो वह कार्य मुझे बताइये। वह करनेयोग्य हो या न हो, मैं आपके प्रियकार्यको अवश्य पूर्ण करूँगी। एकमात्र आप ही मेरे गुरु हैं, प्रियतम हैं।'
पलीके इस प्रकार पूछनेपर उसके पतिने कहा- 'प्रिये ! उस कार्यको न तुम्हीं पूर्ण कर सकती हो और न मैं ही; अतः व्यर्थ बात करनी उचित नहीं है।'
पतिव्रता बोली - नाथ ! [ मुझे विश्वास है] मैं आपका मनोरथ जानकर उस कार्यको सिद्ध कर सकूँगी, आप मुझे आज्ञा दीजिये। जिस किसी उपायसे हो सके मुझे आपका कार्य सिद्ध करना है। यदि आपके दुष्कर कार्यको मैं यत्न करके पूर्ण कर सकूँ तो इस लोक और परलोकमें भी मेरा परम कल्याण होगा।
कोढ़ीने कहा- साध्वि ! अभी-अभी इस मार्गसे एक परम सुन्दरी वेश्या जा रही थी। उसका शरीर सब ओरसे मनोरम था। उसे देखकर मेरा हृदय कामाग्निसे दग्ध हो रहा है। यदि तुम्हारी कृपासे मैं उस नवयौवनाको प्राप्त कर सकूँ तो मेरा जन्म सफल हो जायगा। देवि!
१८३
पतिकी कही हुई बात सुनकर पतिव्रता बोली'प्रभो! इस समय धैर्य रखिये। मैं यथाशक्ति आपका कार्य सिद्ध करूंगी।'
यह कहकर पतिव्रताने मन-ही-मन कुछ विचार किया और रात्रिके अन्तिम भाग - उषः कालमें उठकर वह गोबर और झाडू ले तुरंत ही चल दी। जाते समय उसके मनमें बड़ी प्रसन्नता थी। वेश्याके घर पहुँचकर उसने उसके आँगन और गली-कूचे में झाडू लगायी तथा गोबर से लीप-पोतकर लोगोंकी दृष्टि पड़नेके भयसे वह शीघ्रतापूर्वक अपने घर लौट आयी। इस प्रकार लगातार तीन दिनोंतक पतिव्रताने वेश्याके घरमें झाडू देने और लीपनेका काम किया। उधर वह वेश्या अपने दासदासियोंसे पूछने लगी- आज आँगनकी इतनी बढ़िया सफाई किसने की है ? सेवकोंने परस्पर विचार करके वेश्यासे कहा- 'भद्रे ! घरकी सफाईका यह काम हमलोगोंने तो नहीं किया है।' यह सुनकर वेश्याको बड़ा विस्मय हुआ। उसने बहुत देरतक इसके विषयमें विचार किया और रात्रि बीतनेपर ज्यों ही वह उठी तो उसकी दृष्टि उस पतिव्रता ब्राह्मणीपर पड़ी। वह पुनः टहल बजानेके लिये आयी थी उस परम साध्वी पतिव्रता ब्राह्मणीको देखकर 'हाय! हाय! आप यह क्या करती हैं। क्षमा कीजिये, रहने दीजिये।' यह कहती हुई वेश्याने उसके पैर पकड़ लिये और पुनः कहा'पतिव्रते! आप मेरी आयु, शरीर, सम्पत्ति, यश तथा कीर्ति — इन सबका विनाश करनेके लिये ऐसी चेष्टा कर रही हैं। साध्वि! आप जो-जो वस्तु माँगें, उसे निश्चय दूँगी — यह बात मैं दृढ़ निश्चयके साथ कह रही हूँ। सुवर्ण, रत्न, मणि, वस्त्र तथा और भी जिस किसी वस्तुकी आपके मनमें अभिलाषा हो, उसे माँगिये।'
तब पतिव्रताने उस वेश्यासे कहा- 'मुझे धनकी आवश्यकता नहीं है, तुम्हींसे कुछ काम है; यदि करो तो उसे बताऊँ। उस कार्यकी सिद्धि होनेपर ही मेरे हृदयमें सन्तोष होगा और तभी मैं यह समझँगी कि तुमने इस समय मेरा सारा मनोरथ पूर्ण कर दिया।'