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सृष्टिखण्ड]
• पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पञ्च महायज्ञ.
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होता है, वह चन्द्रग्रहणके समय गङ्गाजीमें स्नान करनेसे काशीमें रहकर प्राण-त्याग करता है, वह मनोवाञ्छित मिल जाता है। जो चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणमें गङ्गाजीके फल भोगकर मेरे स्वरूपमें लीन हो जाता है।* योगयुक्त जलमें डुबकी लगाता है, उसे सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान नैष्ठिक ब्रह्मचारी मुनियोंको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, करनेका फल प्राप्त होता है। यदि रविवारको सूर्यग्रहण वही गति ब्रह्मपुत्र नदीकी सात धाराओंमें प्राणत्याग और सोमवारको चन्द्रग्रहण हो तो वह चूड़ामणि नामक करनेवालेको मिलती है। विशेषतः [अन्तकालमें] जो योग कहलाता है; उसमें स्नान और दानका अनन्त फल सोन नदीके उत्तर तटका आश्रय लेकर विधिपूर्वक माना गया है। उस समय पुण्य तीर्थमें पहले उपवास प्राण-त्याग करता है, वह मेरी समानताको प्राप्त होता है। करके जो पुरुष पिण्डदान, तर्पण तथा धन-दान करता है, जिस मनुष्यकी मृत्यु घरके भीतर होती है, उस घरके वह सत्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
छप्परमें जितनी गाँठे बँधी रहती हैं, उतने ही बन्धन ब्राह्मणने पूछा-देव ! आपने पिताके लिये उसके शरीरमें भी बँध जाते हैं। एक-एक वर्षके बाद किये जानेवाले श्राद्ध नामक महायज्ञका वर्णन किया। उसका एक-एक बन्धन खुलता है। पुत्र और भाई-बन्धु अब यह बताइये कि पुत्रको पिताके जीते-जी क्या करना देखते रह जाते हैं; किसीके द्वारा उसे उस बन्धनसे चाहिये; कौन-सा कर्म करके बुद्धिमान् पुत्रको जन्म- छुटकारा नहीं मिलता। पर्वत, जंगल, दुर्गम भूमि या जन्मान्तरोंमें परम कल्याणकी प्राप्ति हो सकती है। ये सब जलरहित स्थानमें प्राणत्याग करनेवाला मनुष्य दुर्गतिको बातें यत्नपूर्वक बतानेकी कृपा कीजिये। प्राप्त होता है। उसे कीड़े आदिकी योनिमें जन्म लेना
श्रीभगवान् बोले-विप्रवर ! पिताको देवताके पड़ता है। जिस मरे हुए व्यक्तिके शवका दाह-संस्कार समान समझकर उनकी पूजा करनी चाहिये और पुत्रकी मृत्युके दूसरे दिन होता है, वह साठ हजार वर्षातक भाँति उनपर स्नेह रखना चाहिये। कभी मनसे भी उनकी कुम्भीपाक नरकमें पड़ा रहता है। जो मनुष्य अस्पृश्यका आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये। जो पुत्र रोगी स्पर्श करके या पतितावस्थामें प्राण-त्याग करता है, वह पिताकी भलीभांति परिचर्या करता है, उसे अक्षय चिरकालतक नरकमें निवास करके म्लेच्छयोनिमें जन्म स्वर्गकी प्राप्ति होती है और वह सदा देवताओद्वारा पूजित लेता है। पुण्यसे अथवा पुण्य-कर्मोका अनुष्ठान करनेसे होता है। पिता जब मरणासत्र होकर मृत्युके लक्षण देख मर्त्यलोकनिवासी सब मनुष्योंकी मृत्युके समय जैसी रहे हों, उस समय भी उनका पूजन करके पुत्र बुद्धि होती है, वैसी ही गति उन्हें प्राप्त होती है। देवताओंके समान हो जाता है। [पिताकी सद्गतिके पिताके मरनेपर जो बलवान् पुत्र उनके शरीरको निमित्त] विधिपूर्वक उपवास करनेसे जो लाभ होता है, कंधेपर ढोता है, उसे पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल अब उसका वर्णन करता हैं; सुनो । हजार अश्वमेध और प्राप्त होता है। पुत्रको चाहिये कि वह पिताके शवको सौ राजसूय यज्ञ करनेसे जो पुण्य होता है, वही पुण्य चितापर रखकर विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए पहले [पिताके निमित्त] उपवास करनेसे प्राप्त होता है। वही उसके मुखमें आग दे, उसके बाद सम्पूर्ण शरीरका दाह उपवास यदि तीर्थमें किया जाय तो उन दोनों यज्ञोंसे करे। [उस समय इस प्रकार कहे-] 'जो लोभकरोड़गुना अधिक फल होता है। जिस श्रेष्ठ पुरुषके प्राण मोहसे युक्त तथा पाप-पुण्यसे आच्छादित थे, उन गङ्गाजीके जलमें छूटते हैं, वह पुनः माताके दूधका पान पिताजीके इस शवका, इसके सम्पूर्ण अङ्गोंका मैं दाह नहीं करता, वरं मुक्त हो जाता है। जो अपने इच्छानुसार करता हूँ वे दिव्य लोकोमें जायें। इस प्रकार दाह
* वाराणस्यां त्यजेद्यस्तु प्राणांचैव यदृच्छया । अभीष्टं च फलं भुक्त्वा मद्देहे प्रविलीयते ।। (४७।२५२) + लोभमोहसमायुक्तं पापपुण्यसमावृतम् । दहेयं सर्वगात्राणि दिव्याल्लोकान् स गच्छतु ।। (४७ । २६६)