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• अर्थयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
है। गायत्री देवी साख्यायन गोत्रमें उत्पन्न हुई हैं। तीनों जाता है। इतना ही नहीं, वह ब्रापदको प्राप्त होकर लोक उनके तीन चरण हैं। पृथ्वी उनके उदरमें स्थित प्रकृतिसे परे हो जाता है; इसलिये नारद ! तुम है। पैरसे लेकर मस्तकतक शरीरके चौबीस स्थानोंमें प्राणायामसहित गायत्रीका जप किया करो। गायत्रीके चौबीस अक्षरोंका न्यास करके द्विज ब्रह्म- नारदजीने पूछा-ब्रह्मन् ! प्राणायामका लोकको प्राप्त होता है तथा प्रत्येक अक्षरके देवताका क्या स्वरूप है, गायत्रीके प्रत्येक अक्षरके देवता ज्ञान प्राप्त करनेसे विष्णुका सायुज्य मिलता है। अब मैं कौन-कौन हैं तथा शरीरके किन-किन अवयवोंमें गायत्रीका दूसरा निश्चित लक्षण बतलाता हूँ। वह उनका न्यास किया जाता है ? तात ! इन सभी बातोंका अठारह अक्षरोंका यजुर्मन्त्र है। 'अग्नि' शब्दसे उसका क्रमशः वर्णन कीजिये। आरम्भ होता है और 'स्वाहा' के हकारपर उसकी ब्रह्माजी बोले-प्रत्येक देहधारीके गुदादेशमें समाप्ति । जलमें खड़ा होकर इस मन्त्रका सौ बार जप अपान और हृदयमें प्राण रहता है; इसलिये गुदाको करना चाहिये। इससे करोड़ों पातक और उपपातक सङ्कचित करके पूरक क्रियाके द्वारा अपान वायुको नष्ट हो जाते हैं तथा जप करनेवाले पुरुष ब्रह्माहत्या प्राणवायुके साथ संयुक्त करे। तत्पश्चात् वायुको रोककर आदि पापोंसे मुक्त होकर मेरे लोकको प्राप्त होते हैं। कुम्भक करे [और उसके बाद रेचककी क्रियाद्वारा वह मन्त्र इस प्रकार है- ॐ अग्नेर्वाक्पुंसि यजुवेदन वायुको बाहर निकाले। पूरक आदि प्रत्येक क्रियाके जुष्टा सोमं पिब स्वाहा'। इसी प्रकार विष्णु-मन्त्र, साथ तीन-तीन बार प्राणायाम-मन्त्रका जप करना माहेश्वर महामन्त्र, देवीमन्त्र, सूर्यमन्त्र, गणेश-मन्त्र तथा चाहिये] । द्विजको तीन प्राणायाम करके गायत्रीका जप अन्यान्य देवताओंके मन्त्रोंका जप करनेसे भी मनुष्य करना उचित है। इस प्रकार जो जप करता है, उसके पापरहित होकर उत्तम गति पाता है। जिस किसी महापातकोंकी राशि भस्म हो जाती है। तथा दूसरे-दूसरे कुलमें उत्पन्न हुआ ब्राह्मण भी यदि जप-परायण हो तो पातक भी एक ही बारके मन्त्रोच्चारणसे नष्ट हो जाते वह साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है; उसका यलपूर्वक पूजन हैं। जो प्रत्येक वर्णके देवताका ज्ञान प्राप्त करके अपने करना चाहिये। ऐसे ब्राह्मणको प्रत्येक पर्वपर शरीरमें उसका न्यास करता है, वह ब्रह्मभावको प्राप्त विधिपूर्वक दान देना चाहिये। इससे दाताको करोड़ों होता है; उसे मिलनेवाले फलका वर्णन नहीं किया जा जन्मोतक अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है। जो ब्राह्मण सकता। बेटा! प्रत्येक अक्षरके जो-जो देवता है, स्वाध्यायपरायण होकर स्वयं पढ़ता, दूसरोंको पढ़ाता उनका वर्णन करता हूँ, सुनो। [इन अक्षरोंका जप
और संसारमें द्विजातियोंके यहाँ धर्म, सदाचार, श्रुति, करनेसे द्विजको फिर जन्म नहीं लेना पड़ता] । प्रथम स्मृति, पुराण-संहिता तथा धर्मसंहिताका श्रवण कराता. अक्षरके देवता अग्नि, दूसरेके वायु, तीसरेके सूर्य, है, वह इस पृथ्वीपर भगवान् श्रीविष्णुके समान है। चौथेके वियत् (आकाश), पाँचवेंके यमराज, छठेके मनुष्यों और देवताओंका भी पूज्य है। उस तीर्थस्वरूप वरुण, सातवेंके बृहस्पति, आठवेंके पर्जन्य, नवेके और निष्पाप ब्राह्मणका बल अक्षय होता है। उसका इन्द्र, दसवेके गन्धर्व, ग्यारहवेंके पूषा, बारहवेके मित्र, आदरपूर्वक पूजन करके मनुष्य श्रीविष्णुधामको प्राप्त तेरहवेंके त्वष्टा, चौदहवेंके वसु, पंद्रहवेके मरुद्गण, होता है। जो द्विज गायत्रीके प्रत्येक अक्षरका उसके सोलहवेंके सोम, सतरहवेंके अङ्गिरा, अठारहवेके देवतासहित अपने शरीरमें न्यास करके प्रतिदिन विश्वेदेव, उन्नीसवेंके अश्विनीकुमार, बीसवेंके प्रजापति, प्राणायामपूर्वक उसका जप करता है, वह करोड़ों इक्कीसवेंके सम्पूर्ण देवता, बाईसवेके रुद्र, तेईसवेंके जन्मोंके किये हुए सम्पूर्ण पापोंसे छुटकारा पा ब्रह्मा और चौबीसवेके श्रीविष्णु हैं। इस प्रकार चौबीस