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सृष्टिखण्ड ] • ब्राह्मणोंके जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व, गौओंकी महिमा, गोदानका फल.
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पितरों, देवताओं और ब्राह्मणों के निमित्त यत्नपूर्वक दान सुख-दुःख होते हैं, वैसे ही गौके शरीरमें भी होते देता है, तो उसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। वाणिज्य है-ऐसा समझकर गौके कष्टको दूर करने और उसे लाभकारी व्यवसाय है। किन्तु दो उसमें बहुत बड़े दोष सुख पहुँचानेकी चेष्टा करे। आ जाते हैं-लोभ न छोड़ना और झूठ बोलकर माल जो इस विधिसे खेतीका काम कराता है, वह बेचना। विद्वान् पुरुष इन दोनों दोषोंका परित्याग करके बैलको जोतनेके दोषसे मुक्त और धनवान होता है। जो धनोपार्जन करे। व्यापारमें कमाये हुए धनका दान दुर्बल, रोगी, अत्यन्त छोटी अवस्थाके और अधिक बूढ़े करनेसे वह अक्षय फलका भागी होता है।* बैलसे काम लेकर उसे कष्ट पहुँचाता है, उसे गोहत्याका
नारद ! पुण्यकर्ममें लगे हुए ब्राह्मणको इस प्रकार पाप लगता है। जो एक ओर दुर्बल और दूसरी ओर खेती करानी चाहिये। वह आधे दिन (दोपहर) तक चार बलवान् बैलको जोड़कर उनसे भूमिको जुतवाता है, उसे बैलोको हलमें जोते। चारके अभावमें तीन बैलोंको भी गोहत्याके समान पापका भागी होना पड़ता है-इसमें जोता जा सकता है। बैलोंसे इतना काम न ले कि उन्हें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो बिना चारा खिलाये ही दिनभर विश्राम करनेका मौका ही न मिले। प्रतिदिन बैलको हल जोतनेके काममें लगाता है तथा घास खाते बैलोको चोर और व्याघ्र आदिसे रहित स्थानमें, जहाँकी और पानी पीते हुए बैलको मोहवश हाँक देता है, वह घास काटी न गयी हो, ले जाकर चराये। उन्हें यथेष्ट भी गोहत्याके पापका भागी होता है। अमावास्या, घास खानेको दे और स्वयं उपस्थित रहकर उनके खाने- संक्रान्ति तथा पूर्णिमाको हल जोतनेसे दस हजार पीनेकी व्यवस्था करे। उनके रहनेके लिये गोशाला गोहत्याओंका पाप लगता है। जो उपर्युक्त तिथियोंको बनवावे, जहाँ किसी प्रकार उपद्रव न हो। वहाँसे गौओंके शरीरमें सफेद और रंग-बिरंगी रचना करके गोबर, मूत्र और बिखरी हुई घास आदि हटाकर काजल, पुष्प और तेल के द्वारा उनकी पूजा करता है, वह गोशालाको सदा साफ रखे। गोशाला सम्पूर्ण अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है। जो प्रतिदिन दूसरेकी देवताओंका निवासस्थान है, अतः वहाँ कूड़ा नहीं गायको मुट्ठीभर घास देता है, उसके समस्त पापोंका नाश फेंकना चाहिये। विद्वान् पुरुषको उचित है कि वह अपने हो जाता है तथा वह अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। शयन-गृहके समान गोशालाको साफ रखे। उसकी जैसा ब्राह्मणका महत्त्व है, वैसा ही गौका भी महत्त्व है; फर्शको समतल बनाये तथा यत्नपूर्वक ऐसी व्यवस्था दोनोंकी पूजाका फल समान ही है। विचार करनेपर करे, जिससे वहाँ सर्दी, हवा और धूल-धकड़से बचाव मनुष्यों में ब्राह्मण प्रधान है और पशुओंमें गौ। हो। गौको अपने प्राणोंके समान समझे। उसके शरीरको नारदजीने पूछा-नाथ ! आपने बताया है कि अपने ही शरीरके तुल्य माने। अपनी देहमें जैसे ब्राह्मणकी उत्पत्ति भगवान्के मुखसे हुई है; फिर गौओंकी
'एतौ दोषौ महान्तौ च वाणिज्ये लाभकर्मणि । लोभानामपरित्यागो मृषाग्राह्यक्ष विक्रयः॥ एतौ दोषौ परित्यज्य कुर्यादर्थार्जनं बुधः । अक्षयं लभते दानाद् .............
(४५। १०७-८)
दिद्याद् घास यथेष्टं च निल्यमातिष्ठयेत् स्वयम् । गोष्ठं च कारयेत्तत्र किशिद्विनविवर्जितम्।
* दुर्बलं पीडयेद्यस्तु तथैव गदसंयुतम् । अतिबालातिवृदय स गोहत्या समालभेत् ॥ विषम वाहयेद्यस्तु दुर्बलेन बलेन च । स गोहत्यासमं पापं प्रापोतीह न संशयः॥ यो वाहयेद्विना सस्य खादन्तं गां निवारयेत् । मोहात्तृणं जलं वापि स गोहत्यासमं लभेत् ॥
(४५। ११४-१६)