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• अर्जयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
आचरण करना चाहिये। ब्राह्मण क्षत्रियवृत्तिके द्वारा राजासे जो धन प्राप्त करता है, वह श्राद्ध और यज्ञ आदिमें दानके लिये पवित्र माना गया है। उस ब्राह्मणको सदा पापसे दूर रहकर वेद और धनुर्वेद दोनोंका अभ्यास करना चाहिये। जो ब्राह्मण न्यायोचित युद्धमें सम्मिलित होकर संग्राममें शत्रुका सामना करते हुए मारे जाते हैं, वे वेदपाठियोंके लिये भी दुर्लभ परमपदको प्राप्त होते हैं। धर्मयुद्धका जो पवित्र बर्ताव है, उसका यथार्थ वर्णन सुनो। धर्मयुद्ध करनेवाले योद्धा सामने लड़ते हैं, कभी कायरता नहीं दिखाते तथा जो पीठ दिखा चुका हो, जिसके पास कोई हथियार न हो और जो युद्धभूमिसे भागा जा रहा हो― ऐसे शत्रुपर पीछे की ओरसे प्रहार नहीं करते। जो दुराचारी सैनिक विजयको इच्छासे डरपोक, युद्धसे विमुख, पतित, मूर्च्छित, असत्शूद्र, स्तुतिप्रिय और शरणागत शत्रुको युद्धमें मार डालते हैं, वे नरकमें पड़ते हैं।
यह क्षत्रियवृत्ति सदाचारी पुरुषोंद्वारा प्रशंसित है। इसका आश्रय लेकर समस्त क्षत्रिय स्वर्गलोकको प्राप्त करते हैं। धर्मयुद्धमें शत्रुका सामना करते हुए मृत्युको प्राप्त होना क्षत्रियके लिये शुभ है। वह पवित्र होकर सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और एक कल्पतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। उसके बाद सार्वभौम राजा होता है। उसे सब प्रकारके भोग प्राप्त होते हैं। उसका शरीर नीरोग और कामदेवके समान सुन्दर होता है। उसके पुत्र धर्मशील, सुन्दर, समृद्धिशाली और पिताकी रुचिके अनुकूल चलनेवाले होते हैं। इस प्रकार क्रमशः सात जन्मोंतक वे क्षत्रिय उत्तम सुखका उपभोग करते हैं इसके विपरीत जो अन्यायपूर्वक युद्ध करनेवाले हैं, उन्हें चिरकालतक नरक में निवास करना पड़ता है। इस तरह
* तुलेऽसत्यं न कर्तव्यं तुला धर्मप्रतिष्ठिता ॥
छलभावं तुले कृत्वा नरकं प्रतिपद्यते। अतुलं चापि यद् द्रव्यं तत्र मिथ्या परित्यजेत् ॥ एवं मिथ्या न कर्तव्या मृषा पापप्रसूतिका नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम् ॥ अतः सर्वेषु कार्येषु सत्यमेव विशिष्यते । (४५९३ - ९६ )
+ यो वदेत् सर्वकार्येषु सत्यं मिथ्यां परित्यजेत् ॥ स निस्तरति दुर्गाणि स्वर्गमक्षयमश्रुते ।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
ब्राह्मणोंको श्रेष्ठ क्षत्रिय वृत्तिका सहारा लेना उचित है। उत्तम ब्राह्मण आपत्तिकालमें वैश्यवृत्तिसे— व्यापार एवं खेती आदिसे भी जीविका चला सकता है। परन्तु उसे चाहिये कि वह दूसरोंके द्वारा खेती और व्यापारका काम कराये, स्वयं ब्राह्मणोचित कर्मका त्याग न करे। वैश्यवृत्तिका आश्रय लेकर यदि ब्राह्मण झूठ बोले या किसी वस्तुकी बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा करे तो [लोगोंको ठगनेके कारण] वह दुर्गतिको प्राप्त होता है। भीगे हुए द्रव्यके व्यापारसे बचा रहकर ब्राह्मण कल्याणका भागी होता है। तौलमें कभी असत्यपूर्ण बर्ताव नहीं करना चाहिये, क्योंकि तुला धर्मपर ही प्रतिष्ठित है जो तराजूपर तोलते समय छल करता है, वह नरकमें पड़ता है। जो द्रव्य तराजूपर चढ़ाये बिना ही बेचा जाता है, उसमें भी झूठ कपटका त्याग कर देना चाहिये । इस प्रकार मिथ्या बर्ताव नहीं करना चाहिये; क्योंकि मिथ्या व्यवहारसे पापकी उत्पत्ति होती है 1 'सत्यसे बढ़कर धर्म और झूठसे बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है अतः सब कार्योंमें सत्यको ही श्रेष्ठ माना गया है।* यदि एक ओर एक हजार अश्वमेध यज्ञोंका पुण्य और दूसरी ओर सत्यको तराजूपर रखकर तोला जाय तो एक हजार अश्वमेध यज्ञोंकी अपेक्षा सत्यका ही पलड़ा भारी होता है। जो समस्त कार्यों में सत्य बोलता और मिथ्याका परित्याग करता है, वह सब दुःखोंसे पार हो जाता है और अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। ब्राह्मण [ दूसरोंके द्वारा ] व्यापारका काम करा सकता है; किन्तु उसे झूठका त्याग करना ही चाहिये। उसे चाहिये कि जो मुनाफा हो उसमेंसे पहले तीर्थोंमें दान करे; जो शेष बचे, उसका स्वयं उपभोग करे। यदि ब्राह्मण वाणिज्य-वृत्तिसे न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धनको
(४५ । ९७-९८)
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