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सृष्टिखण्ड ]
द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
कुशके संसर्गसे जल अमृतसे भी बढ़कर होता है। कुश सम्पूर्ण देवताओंका निवासस्थान है; पूर्वकालमें मैंने ही उसे उत्पन्न किया था। कुशके मूलमें स्वयं मैं (ब्रह्मा) उसके मध्यभागमें श्रीविष्णु और अग्रभागमें भगवान् श्रीशङ्कर विराजमान हैं; इन तीनोंके द्वारा कुशकी प्रतिष्ठा है। अपने हाथोंमें कुश धारण करनेवाला द्विज सदा पवित्र माना गया है; वह यदि किसी स्तोत्र या मन्त्रका पाठ करे तो उसका सौगुना महत्त्व बतलाया गया है। वही यदि तीर्थमें किया जाय तो उसका फल हजारगुना अधिक होता है। कुश, काश, दूर्वा, जौका पत्ता, धानका पत्ता, बल्वज और कमल — ये सात प्रकारके कुश बताये गये हैं। * इनमें पूर्व पूर्व कुश अधिक पवित्र माने गये हैं। ये सभी कुश लोकमें प्रतिष्ठित हैं।
तिलके सम्पर्कसे जल अमृतसे भी अधिक स्वादिष्ट हो जाता है। जो प्रतिदिन स्नान करके तिलमिश्रित जलसे पितरोंका तर्पण करता है, वह अपने दोनों कुलोंका (पितृकुल एवं मातृकुलका) उद्धार करके ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। वर्षाके चार महीनोंमें दीपदान करनेसे पितरोंके ऋणसे छुटकारा मिलता है। जो एक वर्षतक प्रति अमावास्याको तिलोंके द्वारा पितरोंका तर्पण करता है, वह विनायक - पदवीको प्राप्त होता है और सम्पूर्ण देवता उसकी पूजा करते हैं। जो समस्त युगादि तिथियोंको तिलोंद्वारा पितरोंका तर्पण करता है, उसे अमावास्याकी अपेक्षा सौगुना अधिक फल प्राप्त होता है। अयन आरम्भ होनेके दिन, विषुव योगमें, पूर्णिमा तथा अमावास्याको पितरोंका तर्पण करके मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। मन्वन्तरसंज्ञक तिथियोंमें तथा अन्यान्य पुण्यपर्वोके अवसरपर भी तर्पण करनेसे यही फल होता है। चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणमें गया आदि पुण्य तीर्थोके भीतर पितरोंका तर्पण करके मनुष्य
वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। इसलिये कोई पुण्यदिवस प्राप्त होनेपर पितृसमुदायका तर्पण करना चाहिये । एकाग्रचित्त होकर पहले देवताओंका तर्पण करनेके पश्चात् विद्वान् पुरुष पितरोंका तर्पण करनेका अधिकारी होता है। श्राद्धमें भोजनके समय एक ही हाथसे अन्न परोसे, किन्तु तर्पणके समय दोनों हाथोंसे जल दे; यही सनातन विधि है। दक्षिणाभिमुख होकर पवित्र भावसे 'तृप्यताम्' इस वाक्यके साथ नाम गोत्रका उच्चारण करते हुए पितरोंका तर्पण करना चाहिये ।
जो मोहवश सफेद तिलोंके द्वारा पितृवर्गका तर्पण करता है, उसका किया हुआ तर्पण व्यर्थ होता है। यदि दाता स्वयं जलमें स्थित होकर पृथ्वीपर तर्पणका जल गिराये तो उसका वह जलदान व्यर्थ हो जाता है, किसीके पास नहीं पहुँचता । इसी प्रकार जो स्थलमें खड़ा होकर जलमें तर्पणका जल गिराता है, उसका दिया हुआ जल भी निरर्थक होता है; वह पितरोंको नहीं प्राप्त होता । जो जलमें नहाकर भीगे वस्त्र पहने हुए ही तर्पण करता है, उसके पितर देवताओंसहित सदा तृप्त रहते हैं। विद्वान् पुरुष धोबीके धोये हुए वस्त्रको अशुद्ध मानते हैं। अपने हाथसे पुनः धोनेपर ही वह वस्त्र शुद्ध होता है। जो सूखे वस्त्र पहने हुए किसी पवित्र स्थानपर बैठकर पितरोंका तर्पण करता है, उसके पितर दसगुनी तृप्ति लाभ करते हैं। जो अपनी तर्जनी अंगुलीमें चाँदीकी अंगूठी धारण करके पितरोंका तर्पण करता है, उसका सब तर्पण लाखगुना अधिक फल देनेवाला होता है। इसी प्रकार विद्वान् पुरुष यदि अनामिका अंगुलीमें सोनेकी अंगूठी पहनकर पितृवर्गका तर्पण करे तो वह करोड़ोंगुना अधिक फल देनेवाला होता है।
'कुशाः काशास्तथा दूर्वा यवपत्राणि व्रीहयः । बल्वजाः पुण्डरीकाच कुशाः सप्त प्रकीर्तिताः ॥
जो स्नान करनेके लिये जाता है, उसके पीछे प्याससे पीड़ित देवता और पितर भी वायुरूप होकर
रजकैः क्षालितं वस्त्रमशुद्धं कवयो विदुः । हस्तप्रक्षालनेनैव पुनर्वस्त्रं च
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(४६ । ३४-३५)
शुद्धयति ॥
(४६।५३)