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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
निषिद्ध है। पश्चिम और दक्षिणकी ओर मुँह करके इनके विपरीत कंजूसी, खजनोंकी निन्दा, मैले-कुचैले दन्तधावन न करे। उत्तर और पश्चिम दिशाकी ओर वस्त्र पहनना, नीच जनोंके प्रति भक्ति रखना, अत्यन्त सिरहाना करके कभी न सोये; क्योंकि इस प्रकार शयन क्रोध करना और कटुवचन बोलना-ये नरकसे लौटे करनेसे आयु क्षीण होती है। पूर्व और दक्षिण दिशाकी हुए मनुष्योंके चिह्न हैं। नवनीतके समान कोमल वाणी ओर सिरहाना करके सोना उत्तम है। मनुष्यके एक और करुणासे भरा कोमल हृदय-ये धर्मबीजसे उत्पन्न बारका भोजन देवताओंका भाग, दूसरी बारका भोजन मनुष्योंकी पहचानके चिह्न हैं। दयाशून्य हृदय और मनुष्योंका, तीसरी बारका भोजन प्रेतों और दैत्योंका तथा आरीके समान मर्मस्थानोंको विदीर्ण करनेवाला तीखा चौथी बारका भोजन राक्षसोंका भाग होता है।* वचन-ये पापबीजसे पैदा हुए पुरुषोंको पहचाननेके
जो स्वर्गमें निवास करके इस लोकमें पुनः उत्पन्न लक्षण हैं। जो मनुष्य इस आचार आदिसे युक्त प्रसङ्गको हुए हैं, उनके हृदयमें नीचे लिखे चार सद्गुण सदा सुनता या सुनाता है, वह आचार आदिका फल पाकर मौजूद रहते हैं-उत्तम दान देना, मीठे वचन बोलना, पापसे शुद्ध हो स्वर्गमें जाता है और वहाँसे भ्रष्ट देवताओंका पूजन करना तथा ब्राह्मणोंको संतुष्ट रखना। नहीं होता।
पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच
महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा भीष्मजीने कहा-ब्रह्मन् ! जो कर्म सबसे पाँच धर्मकि आख्यान सुनाऊँगा। उन पाँचोंमेंसे एकका अधिक पुण्यजनक हो, जो संसारमें सदा और सबको भी अनुष्ठान करके मनुष्य सुयश, स्वर्ग तथा मोक्ष भी पा प्रिय जान पड़ता हो तथा पूर्व पुरुषोंने जिसका अनुष्ठान सकता है। माता-पिताकी पूजा, पतिकी सेवा, सबके किया हो, ऐसा कर्म आप अपनी इच्छाके अनुसार प्रति समान भाव, मित्रोंसे द्रोह न करना और भगवान् सोचकर बताइये।
श्रीविष्णुका भजन करना-ये पाँच महायज्ञ हैं। पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! एक समयकी बात ब्राह्मणो ! पहले माता-पिताकी पूजा करके मनुष्य जिस है, व्यासजीकी शिष्यमण्डलीके समस्त द्विज आदरपूर्वक धर्मका साधन करता है, वह इस पृथ्वीपर सैकड़ों यज्ञों उन्हें प्रणाम करके धर्मकी बात पूछने लगे-ठीक इसी तथा तीर्थयात्रा आदिके द्वारा भी दुर्लभ है। पिता धर्म है, तरह, जैसे तुम मुझसे पूछते हो।
पिता स्वर्ग है और पिता ही सर्वोत्कृष्ट तपस्या है। पिताके द्विजोंने पूछा-गुरुदेव! संसारमें पुण्यसे भी प्रसन्न हो जानेपर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं। पुण्यतम और सब धर्मों में उत्तम कर्म क्या है ? किसका जिसकी सेवा और सद्गुणोंसे पिता-माता सन्तुष्ट रहते हैं, अनुष्ठान करके मनुष्य अक्षय पदको प्राप्त करते हैं? उस पुत्रको प्रतिदिन गङ्गानानका फल मिलता है। माता मर्त्यलोकमें निवास करनेवाले छोटे-बड़े सभी वर्गों के सर्वतीर्थमयी है और पिता सम्पूर्ण देवताओका स्वरूप है; लोग जिसका अनुष्ठान कर सकें।
इसलिये सब प्रकारसे यत्नपूर्वक माता-पिताका पूजन व्यासजी बोले-शिष्यगण ! मैं तुमलोगोको करना चाहिये। जो माता-पिताकी प्रदक्षिणा करता है,
* देवात्रमेकभुक्तं तु द्विभुक्तं स्यानरस्य च । त्रिभुक्तं प्रेतदैत्यस्य चतुर्थ कौणपस्य तु॥ + स्वर्गस्थितानामिह जीवलोके चत्वारि तेषा हदये वसन्ति । दानं प्रशस्तं मधुरा च वाणी देवार्चनं ब्राह्मणतर्पणं च ॥ कार्पण्यवृत्तिः स्वजनेषु निन्दा कुचैलता नीचजनेषु भक्तिः। अतीव रोषः कटुका च वाणी नरस्य चिहं नरकागतस्य ।
(४६ । १३१-१३२)