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• अर्चवस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
जलकी आशासे जाया करते हैं; किन्तु जब वह नहाकर सदाचार और उनके कर्तव्योंका क्रम बतलाइये, साथ ही धोती निचोड़ने लगता है, तब वे निराश लौट जाते हैं; समस्त प्रवृत्तिप्रधान कर्मोका वर्णन कीजिये। अतः पितृतर्पण किये बिना धोती नहीं निचोड़नी चाहिये। ब्रह्माजीने कहा-वत्स! मनुष्य आचारसे मनुष्यके शरीरमें जो साढ़े तीन करोड़ रोएँ हैं, वे सम्पूर्ण आयु, धन तथा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करता है। आचार तीर्थोके प्रतीक हैं। उनका स्पर्श करके जो जल धोतीपर अशुभ लक्षणोंका निवारण करता है। आचारहीन पुरुष गिरता है, वह मानो सम्पूर्ण तीर्थोंका ही जल गिरता है; संसारमें निन्दित, सदा दुःखका भागी, रोगी और अल्पायु इसलिये तर्पणके पहले धोये हुए वस्त्रको निचोड़ना नहीं होता है। अनाचारी मनुष्यको निश्चय ही नरकमें निवास चाहिये। देवता स्नान करनेवाले व्यक्तिके मस्तकसे करना पड़ता है तथा आचारसे श्रेष्ठ लोककी प्राप्ति होती गिरनेवाले जलको पीते हैं, पितर मूंछ-दाढ़ीके जलसे तृप्त है; इसलिये तुम आचारका यथार्थरूपमें वर्णन सुनो। होते हैं, गन्धर्व नेत्रोंका जल और सम्पूर्ण प्राणी प्रतिदिन अपने घरको गोबरसे लीपना चाहिये। अधोभागका जल ग्रहण करते हैं। इस प्रकार देवता, उसके बाद काठका पीढ़ा, बर्तन और पत्थर धोने पितर, गन्धर्व तथा सम्पूर्ण प्राणी स्नानमात्रसे संतुष्ट होते चाहिये । काँसेका बर्तन राखसे और ताँबा खटाईसे शुद्ध हैं। सानसे शरीरमें पाप नहीं रह जाता। जो मनुष्य होता है। सोने और चाँदी आदिके बर्तन जलमात्रसे प्रतिदिन स्नान करता है, वह पुरुषोंमें श्रेष्ठ है। वह सब धोनेपर शुद्ध हो जाते हैं। लोहेका पात्र आगके द्वारा पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। देवता तपाने और धोनेसे शुद्ध होता है। अपवित्र भूमि खोदने, और महर्षि तर्पणतक स्नानका ही अङ्ग मानते हैं। जलाने, लीपने तथा धोनेसे एवं वर्षासे शुद्ध होती है। तर्पणके बाद विद्वान् पुरुषको देवताओंका पूजन करना धातुनिर्मित पात्र, मणिपात्र तथा सब प्रकारके पत्थरसे चाहिये।
__बने हुए पात्रकी भस्म और मृत्तिकासे शुद्धि बतायी गयी जो गणेशकी पूजा करता है, उसके पास कोई विघ्न है। शय्या, स्त्री, बालक, वस्त्र, यज्ञोपवीत और नहीं आता। लोग धर्म और मोक्षके लिये लक्ष्मीपति कमण्डलु-ये अपने हों तो सदा शुद्ध हैं और दूसरेके भगवान् श्रीविष्णुकी, आवश्यकताओकी पूर्तिके लिये हों तो कभी शुद्ध नहीं माने जाते। एक वस्त्र धारण करके शङ्करकी, आरोग्यके लिये सूर्यकी तथा सम्पूर्ण भोजन और स्नान न करे। दूसरेका उतारा हुआ वस्त्र कामनाओंकी सिद्धिके लिये भवानीकी पूजा करते हैं। कभी न धारण करे । केशों और दाँतोंकी सफाई सबेरे ही देवताओंकी पूजा करनेके पश्चात् बलिवैश्वदेव करना करनी चाहिये। गुरुजनोंको नित्यप्रति नमस्कार करना चाहिये। पहले अग्निकार्य करके फिर ब्राह्मणोंको तृप्त नित्यका कर्तव्य होना चाहिये। दोनों हाथ, दोनों पैर और करनेवाला अतिथियज्ञ करे। देवताओं और सम्पूर्ण मुख-इन पाँचों अङ्गोंको धोकर विद्वान् पुरुष भोजन प्राणियोंका भाग देकर मनुष्य स्वर्गलोकको जाता है। आरम्भ करे। जो इन पाँचोंको धोकर भोजन करता है, इसलिये प्रतिदिन पूरा प्रयत्न करके नित्यकर्मोका अनुष्ठान वह सौ वर्ष जीता है। देवता, गुरु, स्नातक, आचार्य और करना चाहिये। जो स्नान नहीं करता, वह मल भोजन यज्ञमें दीक्षित ब्राह्मणकी छायापर जान-बूझकर पैर नहीं करता है। जो जप नहीं करता, वह पीब और रक्तपान रखना चाहिये। गौओंके समुदाय, देवता, ब्राह्मण, घी, करता है। जो प्रतिदिन तर्पण नहीं करता, वह पितृघाती मधु, चौराहे तथा प्रसिद्ध वनस्पतियोंको अपने दाहिने होता है। देवताओंकी पूजा न करनेपर ब्रह्महत्याके समान करके चलना चाहिये। गौ-ब्राह्मण, अग्नि-ब्राह्मण, दो पाप लगता है। सन्ध्योपासन न करके पापी मनुष्य ब्राह्मण तथा पति-पत्नीके बीचसे होकर नहीं निकलना सूर्यकी हत्या करता है।
चाहिये। जो ऐसा करता है, वह स्वर्गमें रहता हो तो भी नारदजीने पूछा-पिताजी ! ब्राह्मणादि वर्गों के नीचे गिर जाता है। जूठे हाथसे अग्नि, ब्राह्मण, देवता,